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आत्म विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप ----
------ 203 __ अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियों के उदय से प्रतिकूल एवं दु:खद परिस्थिति का निर्माण होता है जो आध्यात्मिक विकास की कमी का अर्थात् विषय-कषाय के विकारों के उदय का सूचक है। अत: दु:खद परिस्थिति से छुटकारा तभी संभव है जब इन दोषों का त्याग किया जाय यथा-प्रतिकूल परिस्थिति में अशांति व तनाव का दु:ख कामना से, हीनभाव व दीनभाव का दुःख मद-मान से, वैरभाव का दु:ख माया व द्वेष से, दरिद्रता का दु:ख लोभ से, पराधीनता का दुःख ममता से, अस्वस्थता का दु:ख असंयम से, भय, चिंता, शोक आदि का दुःख भोगों के सुखों के प्रलोभन से उत्पन्न होता है। अत: कामना, मान, माया, लोभ, ममता, असंयम, स्वार्थपरता एवं विषय सुखों के प्रलोभन के त्याग से इन दुःखों से मुक्ति मिल जाती है और शांति, ऐश्वर्य, मृदुता माधुर्य, प्रीति, स्वाधीनता, स्वस्थता, उदारता, निश्चिंतता, प्रसन्नता आदि आध्यात्मिक सुखों का अनुभव होता है तथा प्राण, बल, बुद्धि, मन, मस्तिष्क आदि की शक्ति में वृद्धि होती है। अत: प्रतिकूल परिस्थिति व दु;खों से मुक्ति पाने का उपाय दोषों का त्याग करना है। प्रतिकूल परिस्थिति में दु:खी होकर आर्त्तध्यान करना, इन दुःखों से मुक्ति पाने के लिए इन दुःखों के कारणभूत कामना, ममता, अहंता आदि दोषों को न मिटाकर, बाह्य सामग्री से मिटाने का प्रयास करना परिस्थिति का दुरुपयोग है जो दु:ख की परंपरा को बढ़ाने वाला है। इसी प्रकार अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियों से प्राप्त अनुकूल परिस्थिति का अर्थात् शरीर, इन्द्रिय आदि सामग्री व सामर्थ्य का उपयोग दया, दान, सेवा आदि सर्वहितकारी सद्प्रवृत्तियों में करना इनका सदुपयोग है। इससे उदयमान राग व कषाय गलता है, विषय सुखों की दासता से छुटकारा मिलता है और उत्कृष्ट भोगों की उपलब्धि होती है अर्थात् उसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता व अभाव का अनुभव नहीं होता है। वह सदैव प्रसन्न