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--- पुण्य-पाप तत्त्व
194 ----- होती है। अत: पाप प्रकृतियों के समान पुण्य प्रकृतियों का स्थिति बंध भी अशुभ होता है। ठीक इसके विपरीत सिद्धांत अनुभाग पर लागू होता है अर्थात् विशुद्धि रूप कषाय की कमी से पाप प्रकृतियों का अनुभाग घटता है और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता है। यही कारण है कि जब जीव सम्यग्दर्शन के सम्मुख होता है तब समस्त पाप प्रकृतियों का अनुभाग चतु:स्थानिक से घटकर द्विस्थानिक हो जाता है तथा समस्त पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतु:स्थानिक हो जाता है जो आगे समस्त गुणस्थानकों में चतु:स्थानिक ही रहता है तथा पाप प्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़ता ही नहीं। (राजवार्त्तिक, 6.3-4) अत: पुण्य का संबंध अनुभाग बंध से है स्थिति बंध से नहीं। यह नियम है कि शुभ (पुण्य) प्रकृतियों का अनुभाग विशुद्धि से और अशुभ (पाप) प्रकृतियों का अनुभाग संक्लेश से होता है। जैसा कि कहा है- “सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसेण।” (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 163) यहाँ 'विशुद्धि' शब्द उदयमान कषाय में कमी होने के अर्थ में आया है। इसका अभिप्राय यह है कि कषाय में जितनी-जितनी कमी होती जाती है उतना-उतना पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता जाता है व पुण्य प्रकृतियों की स्थिति घटती जाती है। (साथ ही साथ पाप प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग दोनों भी घटते हैं।) फलतः जब पुण्य प्रकृति का अनुभाग उत्कृष्ट अवस्था में पहुँचता है तो उसका स्थिति बंध घटते-घटते जघन्य अवस्था को प्राप्त होता है और फिर आगे स्थिति बँधना बंद हो जाता है और अनुभाग उत्कृष्ट का उत्कृष्ट ही रहता है। तप-संयम, संवर-निर्जरा रूप किसी साधना से पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग में अंश मात्र भी कमी नहीं होती है। यही कारण है कि जब जीव मुक्ति में जाता है तो उस समय पुण्य का उत्कृष्ट अनुभाग ही होता है। यहाँ तक कि वीतराग अवस्था में केवली समुद्घात व योगनिरोध से भी पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग में किंचित् भी कमी नहीं होती है, जैसा कि कहा है