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पुण्य-पाप तत्त्व
वीतराग अवस्था में सदा पुण्य का अनुभाग उत्कृष्ट ही रहता है। जैसा कि कहा है-“सम्मदिट्ठी ण हणइ सुभाणुभागं" (पंचसंग्रह, भाग 7, गाथा 90) अर्थात् सम्यग्दृष्टि शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का हनन (रूप क्षय) नहीं करता है । यह अटल नियम है कि पुण्य का अनुभाग संयम, तप, चारित्र आदि समस्त साधनाओं की वृद्धि से बढ़ता ही है, अतः पुण्य का अनुभाग किसी भी साधना से क्षय नहीं हो सकता। फिर भी यदि किसी को पुण्य के अनुभाग का क्षय इष्ट ही हो तो उसका एकमात्र उपाय है-संक्लेश भाव । पाप की वृद्धि ही एकमात्र पुण्य के अनुभाग के क्षय का उपाय है, अन्य कोई उपाय मेरी जानकारी में नहीं है। यह नियम है कि शुभ परिणामों की वृद्धि से पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है जिससे पाप प्रकृतियों के स्थितिबंध तथा अनुभाग बंध व पुण्य प्रकृतियों के स्थिति बंध का क्षय होता है । अत: ‘शुभ भाव कर्मक्षय के ही कारण हैं, कर्म-बंध के नहीं।' यह मान्यता या सिद्धांत अकेले श्री वीरसेनाचार्य का ही हो सो नहीं है, प्रत्युत श्वेताम्बरदिगम्बर सम्प्रदाय के समस्त कर्म - सिद्धांत विषयक वाङ्मय - यथा, भगवतीसूत्र, पन्नवणा, छह कर्मग्रंथ, कम्मपयडि, पंचसंग्रह, षट्खण्डागम, कसायपाहुड, गोम्मटसार, कर्मकाण्ड आदि मूल ग्रन्थों व इनकी टीकाओं में भी उपर्युक्त सिद्धांत पूर्ण रूप से मान्य है। इसमें किसी का भी विचारभेद या मतभेद नहीं है। विस्तार के भय से यहाँ इन सब ग्रन्थों के प्रमाणों को प्रस्तुत नहीं किया गया है।