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शुभ योग (सद्प्रवृत्ति) से कर्म क्षय होते हैं -----
सुहाणं पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहेण वा अनुभाग-घादो णत्थि त्ति जाणवेदि। खीणकसायसजोगीसु ट्ठिदिअणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो पत्थि त्ति अत्थावत्तिसिद्धं ।
-धवला पुस्तक 12, पृष्ठ 18 अर्थ-शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवली समुद्घात व योग निरोध से नहीं होता। क्षीण कषाय व सयोगी गुणस्थानों में स्थिति घात व अनुभाग घात होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात नहीं होता है। अत: अयोगी गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग होता है।
__ अभिप्राय यह है कि वीतराग केवली के सब पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग होता है और मुक्ति-प्राप्ति के समय तक वह उत्कृष्ट ही रहता है। इसमें लेशमात्र भी कमी नहीं होती है। सभी कर्मों की स्थिति के क्षय हो जाने के कारण देह छूट जाने के साथ सर्व पुण्य और उनके फल भी छूट जाते हैं। पुण्य का क्षय किसी भी साधना से कदापि संभव नहीं है। जैसा कि कहा है-सम्मत्तेण सुदणाणेण य, विरदीए कसायणिग्गहगुणेहिं जो परिणदो सो पुण्णो। (मूलाचार, गाथा 234) अर्थात् जो सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, विरति (महाव्रत-संयम), कषाय-निग्रह रूप गुणों में परिणत होता है, वह पुण्य है। तात्पर्य यह है कि संयम व चारित्र से भावों की विशुद्धि में वृद्धि होती है जिससे पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती है। यह विशुद्धि साधना के उत्कृष्ट रूप क्षपक श्रेणी में विशेष होती है, अत: चारित्र की क्षपक श्रेणी के समय उत्कृष्ट साधना से पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग का सर्जन होता है। वीतराग अवस्था में जब चारित्र यथाख्यात रूप से पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। तब पुण्य भी अपनी पूर्णता को, उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त हो जाता है। उत्कृष्ट हो जाने से फिर आगे बढ़ने की गुंजाइश नहीं रहती। अत: