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शुभ योग (सद्प्रवृत्ति) से कर्म क्षय होते हैं
पुव्वा संचियस्स कम्मस्स कुदो खाओ ? ट्ठिदिक्खयादो । ट्ठिदिखओ कुतो? कसायक्खयादो।।
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-जयधवला पुस्तक 1, पृष्ठ 57
अर्थात् पूर्व संचित कर्म का क्षय किस कारण से होता है ? उत्तरस्थिति के क्षय से। स्थिति का क्षय किससे होता है? कषाय के क्षय से। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि स्थिति के बंध से ही कर्म का बंध होता है व स्थिति के क्षय से ही कर्म का क्षय होता है।
कर्म-सिद्धांत के अनुसार स्थिति बंध ही बंध और स्थिति का क्षय ही कर्म क्षय है। यह सिद्धांत पुण्य-पाप प्रकृतियों पर समान रूप से लागू होता है तथा स्थिति बंध कषाय से होता है, अत: स्थिति बंध पाप का हो या पुण्य का, अशुभ ही है, जैसा कि कहा है- “सव्वाण वि जिट्ठ ठिई, असुभा जं साइसंकिलेसेणं” ( कर्मग्रन्थ भाग 5, गाथा 52, गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा 134, तत्त्वार्थराजवार्त्तिक अध्ययन 6, सूत्र 2 )
उत्कृष्ट
अर्थात् समस्त कर्म प्रकृतियों (तीन शुभ आयु को छोड़कर) का स्थिति बंध उत्कृष्ट संक्लेश (कषाय ) से बँधता है, अत: स्थिति बंध अशुभ ही है, पाप का द्योतक है। यहाँ तक कि तीर्थङ्कर नामकर्म जैसी प्रकृष्ट पुण्य प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बंध भी उत्कृष्ट संक्लेश से होता है। इसके विपरीत जैसे-जैसे कषाय में कमी आने रूप विशुद्धि बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे पुण्य का स्थिति बंध घटता जाता है। यही कारण है कि जीव जब अपने भावों में विशेष विशुद्धि होने से सम्यग्दर्शन के सम्मुख होता है उस समय पाप प्रकृतियों के साथ पुण्य प्रकृतियों का पहले बँधा हुआ दस कोटाकोटि सागरोपम का स्थिति बंध भी घटकर अंत: कोटाकोटि सागर का रह जाता है अर्थात् पाप प्रकृतियों के समान पुण्य प्रकृतियों में भी कषाय की कमी से स्थिति बंध में कमी और कषाय की वृद्धि से स्थिति बंध में वृद्धि