________________
मुक्ति में पुण्य सहायक, पाप बाधक ----
-------157 गुण सदैव उपादेय हैं, इन्हें हेय या त्याज्य कहना या समझना भूल है। साधक का भला इस भूल को दूर करने में है। भूल बनाये रखने में नहीं।
यही प्रश्न उठता है कि फिर पुण्य कर्म क्या है? उत्तर में कहना होगा कि सद्प्रवृत्तियों तथा संयम से आत्मा का जितना-जितना मोहकषाय घटता जाता है उतनी-उतनी आत्मा निर्मल (पवित्र) होती जाती है। उसका चैतन्य गुण प्रकट होता जाता है अर्थात् आत्मिक (आध्यात्मिक) विकास होता जाता है। यह पुण्य तत्त्व है। ‘जहा अंतो तहा बाहि' अर्थात् जैसा भीतर वैसा बाहर। आचारांग आगम के इस सिद्धांतानुसार आध्यात्मिक विशुद्धि के साथ भौतिक विकास होता जाता है, अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन आदि पौद्गलिक पदार्थों की प्राप्ति व शक्ति में वृद्धि होती जाती है। इसी को पुण्य कर्म कहा जाता है। पुण्य शुभ रूप ही होता है, अशुभ रूप नहीं। अर्थात् इससे जीव को किसी भी प्रकार की हानि या दु:ख नहीं होता है। पुण्य की सभी प्रकृतियाँ अघाती होती हैं। अत: ये आत्मा के किसी भी गुण का लेशमात्र भी घात नहीं करती।
गुण के क्रियात्मक रूप सद्प्रवृत्ति से पुण्य कर्म के प्रकृति, प्रदेश और अनुभाग का सृजन होता है, स्थिति का नहीं। अत: गुण बंधन कारक होते ही नहीं हैं। गुण का क्रियात्मक रूप दया, दान आदि पुण्य है, अत: पुण्य भी गुण का फल ही है।
यह नियम है कि दोष पाप है और निर्दोषता गुण है। कर्मों का बंध दोष से होता है, निर्दोषता से नहीं। प्रत्युत निर्दोषता से कर्म टूटते ही हैं। अर्थात् जितना-जितना राग रूप दोष घटता जाता है-निर्दोषता प्रकट होती जाती है; उतने-उतने कर्म उसी क्षण क्षीण होते जाते हैं। राग के पूरा क्षय होते ही घाती कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाता है और कैवल्य अवस्था प्रकट