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पुण्य-पाप तत्त्व
दृष्टि से मूर्च्छा (ममत्व भाव) को परिग्रह कहा है, वैसे ही कषाय रूप रागादि परिणाम को हिंसा या बंध का कारण कहा है।
तीर्थङ्कर नामकर्म आदि पुण्य प्रकृतियों का आस्रव बंध
तात्पर्य यह है कि योगों के निमित्त से कार्मण वर्गणाओं के आने रूप कर्म दलिकों का जो आस्रव होता है, वह कर्म बंध रूप नहीं होता है। वह कर्मबंध रूप अवस्था को तभी प्राप्त होता है जब उस समय उदयमान कषाय के कारण उस कर्म की स्थिति बँधती है। स्थिति बंध से ही वह कर्म जीव के साथ बँधा रहता है। स्थिति बंध के अभाव में वे कर्मदलिक बंध अवस्था को प्राप्त नहीं होते हैं, जैसा कि कहा है
अणुभाग -
-धवला पुस्तक 13, पृष्ठ 49
'कसायाभावेण -बंधाभावादो' । अर्थात् कषाय के अभाव में कर्म के प्रदेश - अनुभाग आदि बंध अवस्था को प्राप्त नहीं होते हैं । कारण कि कषाय से ही स्थिति बंध होता है। स्थिति बंध कर्म के प्रदेशों का होता है। प्रदेशों के साथ अनुभाग जुड़ा रहने से वह भी प्रदेशों के साथ बंध अवस्था को प्राप्त होता है। इस प्रकार कषाय अनुभाग बंध का अनंतर व साक्षात् कारण न होकर परंपर कारण है। अभिप्राय यह है कि पुण्यास्रव का संबंध पुण्य प्रकृतियों के प्रदेश रूप कर्मदलिकों के अर्जन से है, पुण्य की स्थिति कषाय रूप पाप से बँधती है। अत: अशुभ है। इसे समझने के लिए हम तीर्थङ्कर नामकर्म के उपार्जन रूप पुण्यास्रव को लें, साथ ही उसके उत्कृष्ट स्थिति बंध के स्वामित्व पर विचार करें तो यह रहस्य स्पष्ट हो जायेगा। पहले यहाँ तीर्थङ्कर नामकर्म के उपार्जन रूप पुण्यास्रव के हेतुओं पर विचार करते हैं
तीर्थङ्कर नामकर्म का पुण्य प्रकृतियों में उच्चतम स्थान है। इस प्रकृति के उपार्जन के ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के अध्ययन आठ में बीस कारण बताये हैं तथा धवला, पुस्तक 8, पृष्ठ 79 से 91 तक एवं तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय 6 सूत्र 23 में सोलह कारण कहे गये हैं। इनमें आवश्यक,