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------ पुण्य-पाप तत्त्व कहं णं भंते! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति? गोयमा! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए; बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए, असोसणयाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए, अणि?णयाए, अपरियावणयाए; एवं खलु गोयमा! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जति।
अर्थ-श्री गौतमस्वामी पूछते हैं कि हे भगवन्! जीव सातावेदनीय कर्म का उपार्जन किस प्रकार करते हैं? उत्तर में भगवान फरमाते हैं कि हे गौतम! प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पर अनुकंपा करने से, बहुत से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दु:ख न देने से, उन्हें शोक उत्पन्न न करने से, उन्हें खेदित व पीड़ित न करने से, उनको न पीटने से, उनको परिताप नहीं देने से जीव सातावेदनीय रूप पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं।
उपर्युक्त सूत्र से स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकंपा करने तथा प्राणातिपात न करने रूप शुद्धोपयोग से पुण्य का उपार्जन होता है। भगवती शतक 7 के इसी छठे उद्देशक में कहा है कि प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पाप के त्याग रूप शुद्धोपयोग से अकर्कश (सुखद) वेदनीय कर्म रूप पुण्य का उपार्जन होता है। इसी प्रकार भगवती सूत्र के शतक 8 उद्देशक 7 में कहा गया है- “गोयमा! जाइअमएणं, कुलअमएणं...."उच्चगोयकम्मासरीरजाव पओगबंधे।" अर्थात् जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, श्रुतमद, लाभमद एवं ऐश्वर्यमद, ये आठ मद न करने से उच्चगोत्र का प्रयोग बंध होता है। इसका अभिप्राय यह है कि मद या मान पाप के त्याग रूप शुद्धोपयोग से उच्चगोत्र रूप पुण्य का उपार्जन होता है। तात्पर्य यह है कि 'पुण्य का आस्रव (उपार्जन)' पाप के त्याग रूप शुद्धोपयोग से होता है, यह सिद्धांत आगम सम्मत है। इसका विशेष विवेचन “कषाय क्षय से पुण्य का उपार्जन' लेख में किया गया है। पुण्यास्रव में कोई दोष नहीं है, इस संबंध में कहा है