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शुभ योग (सद्प्रवृत्ति) से कर्म क्षय होते हैं
जैनागमों में विषय, कषाय, हिंसा, झूठ आदि असद्-प्रवृत्तियों को सावद्य योग, अशुभ योग व पाप कहा गया है तथा दया, दान, करुणा, वात्सल्य, वैयावृत्त्य आदि सद्प्रवृत्तियों को शुभ योग व पुण्य कहा गया है। साथ ही शुभ योग को संवर भी कहा है। शुभयोग को पुण्य कहने का आशय है कि शुभयोग से आत्मा पवित्र होती है एवं पुण्य कर्म का उपार्जन होता है। शुभ योग को संवर कहने का अर्थ यह है कि शुभ योग से कर्म बंध नहीं होता है तथा यह भी कहा गया है कि शुभ योग संवर और निर्जरा रूप है अर्थात् दया, दान, अनुकम्पा, करुणा, वात्सल्य, सेवा, परोपकार, मैत्री आदि सद्प्रवृत्तियों से कर्म बंध नहीं होता है, प्रत्युत कर्मों का क्षय होता है।
'शुभ योग से कर्म बंध नहीं होता है वरन् कर्म क्षय होता है।' यह मान्यता जैन धर्म की मौलिक मान्यता है और प्राचीनकाल से परंपरा के रूप में अविच्छिन्न धारा से चली आ रही है। 'शुभ योग संवर है' यह मान्यता श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो आज भी ज्यों की त्यों विद्यमान है, किंतु दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी इसे मानें अथवा न मानें, परंतु प्राचीन काल में दिगम्बर सम्प्रदाय में यह मान्यता सर्वमान्य ही रही है। इसके अनेक प्रमाण ख्याति प्राप्त दिगम्बर आचार्य श्री वीरसेनस्वामी रचित प्रसिद्ध धवलाटीका