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शुभ योग (सद्प्रवृत्ति) से कर्म क्षय होते हैं
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प्रकार की मान्यता उस समय प्रचलित नहीं होती तो उसका निषेध करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। श्री वीरसेनाचार्य ने शुभ भाव से कर्म क्षय नहीं होते हैं अर्थात् कर्म बंध होते हैं इस मान्यता का खण्डन करने के लिए ही उपर्युक्त रूप में जोरदार शब्दों का प्रयोग किया है। परंतु उपर्युक्त मान्यता पर जयधवला पुस्तक 1 पृष्ठ 5 पर मान्यवर सम्पादक महोदय ने ‘विशेषार्थ’ के रूप में अपनी टिप्पणी देते हुए लिखा है कि शुभ परिणाम कषाय आदि के उदय से ही होते हैं क्षयोपशम आदि से नहीं । इसलिए जबकि औदयिक भाव कर्मबंध के कारण हैं, तो शुभ परिणामें से कर्मबंध ही होना चाहिये, क्षय नहीं ।
‘शुभ भाव' कषाय के उदय से होते हैं। यह मान्यता जयधवल के संपादक महोदय की ही नहीं है, अपितु यह मान्यता कुछ शताब्दियों से जैन धर्मानुयायियों के अनेक सम्प्रदायों में घर कर गई है। कारण कि शुभ भावों की उत्पत्ति का कारण यदि कषाय के उदय को न माना जाए तो शुभ भाव से कर्म-बंध होता है यह नहीं माना जा सकता, जो इनको इष्ट नहीं है ।
उपर्युक्त मान्यता का विश्लेषण करने के लिए सर्वप्रथम यह विचार करना है कि शुभ भाव की उत्पत्ति का कारण कषाय का उदय है या नहीं । इस संबंध में निम्नांकित तथ्य चिंतनीय हैं
कषाय अशुभ भाव है। अशुभ भावों के उदय से शुभ परिणामों की उत्पत्ति मानना मूलतः ही भूल है। यह भूल ऐसी ही है जैसे कोई कटु नीम का बीज (निम्बोली) बोये और उसके फल के रूप में मधुर आमों की उपलब्धि होना माने। परंतु नियम यह है कि जैसा बीज होता है वैसा ही फल प्राप्त होता है, अतः कषाय रूप अशुभ परिणाम के फलस्वरूप शुभ परिणामों की उत्पत्ति मानना भूल है।