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शुभ योग (सद्प्रवृत्ति) से कर्म क्षय होते हैं ----- दान गुण का विकास होता है जो दानान्तराय कर्म की कमी (क्षयोपशम) का द्योतक है।
शुद्ध व शुभ भाव से आई कषाय की कमी से कामना, ममता, अहंता, कर्तृत्वभाव व भोक्तृत्वभाव में कमी आती है। कामना की कमी से अभाव के अनुभव में कमी होती है जो लाभांतराय के क्षयोपशम की द्योतक है। ममता की कमी से ‘परभाव' में कमी आती है, ‘स्वभाव' की अभिव्यक्ति होती है, जिससे निज रस की अभिवृद्धि होती है और भोगेच्छा में कमी होती है। फलत: भोग के अभाव के अनुभव में कमी होती है, जो भोगान्तराय के क्षयोपशम की द्योतक है। अहंत्व में कमी आने से ‘पर' के प्रति राग घटता है और तादात्म्य टूटता है जिससे प्रेम का प्रादुर्भाव होता है। राग का रस क्षणिक या विनश्वर है, तत्क्षण नष्ट हो जाता है, परंतु प्रेम का रस नित नूतन रहता है, उसका बार-बार भोग किया जा सकता है, जो उपभोगान्तराय के क्षयोपशम का द्योतक है। भोक्तृत्व भाव की कमी से कर्तृत्व भाव में कमी आती है तथा त्याग का सामर्थ्य आता है जो वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम का द्योतक है।
इस प्रकार शुद्ध व शुभ भाव से मोहनीय, दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय, वेदनीय, नाम, गोत्र व अंतराय कर्म की पाप प्रकृतियों का क्षयोपशम व क्षय होता है साथ ही अघाती कर्म की शुभ (पुण्य) प्रकृतियों के अनुभाग का उत्कर्ष भी होता है। बंध किसी भी प्रकार का नहीं होता है क्योंकि कर्म-बंध का कारण राग और द्वेष ही हैं जो अशुभ ही हैं। उनका शुभ भाव में कोई स्थान नहीं है।
यही नहीं, शुभ भाव से अशुभ (पाप) प्रकृतियों का संक्रमण (रूपान्तरण) शुभ (पुण्य) प्रकृतियों में होता है अर्थात् पाप प्रवृत्तियों