________________
--- पुण्य-पाप तत्त्व
186 --- कभी शुभ नहीं होता। इसी प्रकार गुण कभी दोष रूप नहीं हो सकता। दोष से ही कर्मबंध होते हैं, गुण से नहीं। अत: शुभभाव रूप मैत्री, प्रमोद, करुणा, अनुकम्पा, वात्सल्य आदि भावों को कर्म-बंध व संसार भ्रमण का कारण मानना भूल है। इस भूल के रहते मानवता का जागरण ही संभव नहीं है।
___ जहाँ मानवता का ही अभाव है वहाँ संयम, तप, संवर, निर्जरा रूप धर्म व मोक्ष कदापि संभव नहीं है। वहाँ तो पशुता व दानवता है, जिसका मानव जीवन में कोई स्थान नहीं है। अत: जो मैत्री, प्रमोद, करुणा, वात्सल्य, सेवा आदि शुभ भावों व सद्गुणों को कर्मबंध व संसार-भ्रमण का कारण मानते हैं वे गुण को दोष, स्वभाव को विभाव, निर्जरा या मोक्ष के मार्ग को संसार का मार्ग मानते हैं।
_ विचार यह करना है कि 'शुभ भाव' से कर्म-क्षय होने की प्रक्रिया क्या है? इसके लिए हमें प्राचीन कर्मग्रन्थों व उनकी टीकाओं पर ध्यान देना होगा। प्राचीन कर्मग्रन्थों व उनकी टीकाओं में शुभ भाव व शुभयोग के स्थान पर 'विशुद्धि' शब्द का प्रयोग हुआ है। जिससे आत्मा विशुद्ध हो वही 'विशुद्धि' है। आत्मा की शुद्धि होती है कषायों में कमी होने से। अर्थात् वर्तमान में जितने अंशों में कषाय का उदय है उन कषायांशों में कमी होना विशुद्धि है। यही आत्मा का पवित्र होना भी है। इसे ही शुद्धोपयोग व क्षयोपशम भाव, धर्म व पुण्य भी कहा है। इसके विपरीत वर्तमान में जितने कषायांश हैं उनमें वृद्धि होने को संक्लेश कहा गया है। संक्लेश से आत्मा का अध:पतन होता है।
कषाययुक्त प्रवृत्ति ही मोह है। अत: कषाय की कमी या वृद्धि होना मोह (मोहनीय कर्म) की कमी या वृद्धि होना है। कषाय या मोह