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--- पुण्य-पाप तत्त्व एवं जयधवलाटीका में देखे जा सकते हैं। उन्हीं में से कसायपाहुड की जयधवलाटीका से एक प्रमाण यहाँ उद्धृत किया जा रहा है
सुह-सुद्ध परिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो। ओदइया बंधयरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा।। भावो दु पारिणामिओ करणोभयवज्जिओ होइ।।
-जयधवला, पुस्तक 1, पृष्ठ 5 अर्थात् शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। कहा भी है
औदयिक भावों से कर्म-बंध होता है। औपशमिक, क्षायिक और मिश्र (क्षायोपशमिक) भावों से मोक्ष होता है तथा पारिणामिक भाव बंध और मोक्ष इन दोनों के कारण नहीं हैं।
उपर्युक्त उद्धरण में टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य ने जोर देकर स्पष्ट शब्दों में कहा है कि क्षायोपशमिक भाव (शुभ भाव) मोक्ष का हेतु है, इससे कर्म क्षय होते हैं, कर्म-बंध नहीं होते हैं। कर्म-बंध का कारण तो एकमात्र उदयभाव ही है।
श्री वीरसेनाचार्य ने उपर्युक्त प्रसंग में सीधे शब्दों में विधिपरक अर्थ में यह नहीं कहा कि शुद्ध व शुभ भाव से कर्म क्षय होते हैं प्रत्युत निषेधात्मक अर्थ पर जोर देकर यह कहा है कि यदि शुद्ध व शुभ भाव से कर्म क्षय न हो तो कर्म क्षय हो ही नहीं सकते। श्री वीरसेनाचार्य के इस प्रकार के निषेधात्मक अर्थपरक उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय जैन धर्मानुयायियों में किसी सम्प्रदाय या आचार्य की यह मान्यता रही है कि शुभभाव से कर्म क्षय नहीं होते हैं। इसी मान्यता का निषेध करने के लिए आचार्य ने उपर्युक्त रूप से कथन किया है। यदि इस