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----- पुण्य-पाप तत्त्व दोनों की प्रकृतियों के स्थिति बंध व स्थिति क्षय का कारण एक ही है अर्थात् स्थिति बंध का कारण कषाय का उदय है और स्थिति क्षय का कारण कषाय का क्षय व कमी है। अत: जैसे-जैसे पाप प्रकृतियों की स्थिति घटती जाती है वैसे-वैसे पुण्य प्रकृतियों की स्थिति भी अपने आप घटती जाती है। तात्पर्य यह है कि पुण्य प्रकृतियों की स्थिति के क्षय के लिए किसी अन्य साधना की आवश्यकता नहीं है।
साधना का कार्य पाप प्रकृतियों का क्षय करना ही है, पुण्य प्रकृतियों का नहीं। पुण्य प्रकृतियाँ तो उदय में आकर यथासमय स्वत: नष्ट हो जाती हैं, इन्हें क्षय करने के लिए किसी साधना व प्रयत्न की आवश्यकता व अपेक्षा नहीं होती।
यह सर्वविदित है कि पुण्य कहा ही उसे जाता है जो आत्मा को पवित्र व निर्मल करता है और उसका उपार्जन कषाय की मंदता रूप विशुद्धि व शुद्ध भाव से होता है। इस प्रकार पुण्य का हेतु व बीज संयम, तप, त्याग एवं विशुद्धि भाव रूप संवर-निर्जरा है। पुण्य संवर-निर्जरा की ही अभिव्यक्ति का रूप है, क्योंकि जैसा बीज होता है वैसा ही फल लगता है। अतएव पुण्य को हेय व त्याज्य मानना संवर-संयम-तप को हेय व त्याज्य मानना है। पुण्य का विरोध करना संवर, तप, निर्जरा, सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र व शुद्ध भाव रूप स्वभाव का ही विरोध करना है। कारण कि जहाँ शुद्ध भाव होता है वहाँ योग रहते पुण्यास्रव नियम से होता है। पुण्यास्रव के त्याग का अर्थ है-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, संयम, तप रूप साधना व शुद्ध भाव का त्याग। मुक्ति के मार्ग के त्याग का अर्थ है मुक्ति का त्याग। इस प्रकार पुण्यास्रव के त्याग के फलस्वरूप मोक्ष व मोक्ष-मार्ग का ही निषेध-विच्छेद हो जायेगा, जो किसी को भी इष्ट नहीं हो सकता।
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