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पुण्य-पाप आस्रव का हेतु : शुद्ध-अशुद्ध उपयोग ----
औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीनों भाव घाती कर्मों के उपशम, क्षयोपशम व क्षय से होते हैं। अत: आत्मा की शुद्धि को बढ़ाने वाले हैं और ये मोक्ष के हेतु हैं। जिन भावों से आत्मा की शुद्धि होती हो, जो मोक्ष के हेतु हों उन क्षयोपशम आदि भावों को शुद्धोपयोग ही कहा जायेगा, उन्हें अशुद्धोपयोग नहीं कह सकते। अशुद्धोपयोग त्याज्य ही होता है तथा भगवती सूत्र के प्रारंभ में कहा है “चलमाणे चले" अर्थात् जिसने चलना प्रारंभ कर दिया हो, उसे 'चला' कहा जाता है। उसे चला न मानना निह्नवता है, आगम विरुद्ध है। अत: जिससे आत्मा की शुद्धि हो वह शुद्धोपयोग है, अशुद्धोपयोग नहीं। शुद्धभाव से पुण्यास्रव एवं क्षय
शुद्धभाव निर्दोषता का सूचक है और अशुद्धभाव सदोषता का। कषाय दोष है। दोष त्याज्य है, चाहे वह कम हो या अधिक। दोष में कमी होना शुद्धता में या शुभता में वृद्धि की द्योतक है जो पाप का नाश करने वाली और पुण्य के उपार्जन में वृद्धि करने वाली है। ये दोनों कार्य युगपत् होते हैं जैसा कि आचार्य पूज्यपाद ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्ध टीका में कहा है
यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेदनभस्माङ्गारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः।
अर्थात् अग्नि एक है तथापि उसके विक्लेदन से भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं वैसे ही तपरूप साधना से अभ्युदय (पुण्य) और कर्मक्षय रूप मुक्ति ये दोनों कार्य प्राप्त है, ऐसा मानने में क्या विरोध है, अर्थात् कोई विरोध नहीं है।
जैन दर्शन में सर्वत्र पाप के क्षय व पुण्य के अनुभाग में वृद्धि इन दोनों को एक साथ माना गया है। नमस्कार मंत्र को ही लें। इसमें अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु इन पाँच पदों को नमस्कार करने का फल