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पुण्य-पाप आस्रव का हेतु : शुद्ध - अशुद्ध उपयोग
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आत्मा का पवित्र होना है। यही विकारों में कमी रूप विशुद्धि भाव पुण्य कहा जाता है। 'पुण्य' मंगल रूप ही होता है, जैसा कि कहा है
मंगलस्यैकार्थ उच्यते मंगलं, पुण्यं, पूतं, पवित्रं, प्रशस्तं शिवं, शुभं, कल्याणं, भद्रं सौख्यमित्येवमादीनि मंगलपर्यायवचनानि ।
-धवला पुस्तक 1, पृष्ठ 3
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अर्थात मंगल के एकार्थक नाम हैं- मंगल, पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण, भद्र, सौख्य इत्यादि । इन पर्यायवाची शब्दों में पुण्य प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण अर्थात् मुक्ति रूप कहा है।
जो पुण्य शिव व कल्याण रूप है, उस पुण्य को त्याज्य व हेय कहना शिव व कल्याण को त्याज्य कहना है। मंगल शब्द पाप रूप मल को गालने के अर्थ का द्योतक है। विकारों में कमी होकर उनका क्षय होना कल्याणकारी है, मुक्ति देने वाला है। इसलिए पुण्य को कल्याण व शिवरूप कहा है। जिससे आत्मा पवित्र होती है, वह सब पुण्य रूप है, मंगल रूप है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र व अहिंसा-संयम-तप रूप धर्म को उत्कृष्ट मंगल रूप कहा है अर्थात् ये अहिंसादि धर्म पुण्य, शिव व कल्याण रूप हैं। धर्म की वृद्धि के साथ पुण्य के अनुभाग की वृद्धि नियम से होती है। अतः पुण्य और धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनको अलग नहीं किया जा सकता। आत्मा का विकारी भावों में कमी आने रूप विशुद्धि या शुभ भाव ही पुण्य तत्त्व है। पुण्य तत्त्व का संबंध शुद्ध व शुभभाव से है। जिससे आत्मा पवित्र हो वही पुण्य है, वही धर्म है। अतः पुण्य व धर्म एक ही कोटि के हैं।
पुण्य का आस्रव-कषाय की मंदता, संयम, त्याग, तप रूप शुद्धभाव व अनुकंपा, वात्सल्य, करुणा, दया, दान रूप सद्प्रवृत्तियों से पुण्य कर्म प्रकृतियों का उपार्जन होता है। इनके अनुभाग का अर्जन होता है। यही पुण्य का आस्रव कहा गया है। यहाँ पुण्यास्रव में पुण्य प्रकृतियों की स्थिति को नहीं लिया गया है, क्योंकि यह नियम है कि जितना - जितना