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--- पुण्य-पाप तत्त्व सकती है, अनुभाग घट सकता है। जैसे कि 10वें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय आदि पाप प्रकृतियों व उच्चगोत्र आदि पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है व स्थिति बंध जघन्य होता है तथा इन्हीं पुण्य प्रकृतियों की मिथ्यात्व गुणस्थान में प्रदेश वृद्धि के साथ स्थिति बढ़ सकती है, अनुभाग घट सकता है, जैसा कि कहा है
“जोगवविदो अनुभागवड्डीए अभावादो।"-धवला पुस्तक 12, पृष्ठ 115 अर्थात् योगवृद्धि से अनुभाग वृद्धि संभव नहीं तथा "ट्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभावघादो णत्थि त्ति"
-कसाय-पाहुड, पुस्तक, पृष्ठ 337 अर्थात् प्रदेशों के गलने से जैसे स्थितिघात होता है, वैसे अनुभाग घात नहीं होता है। आशय यह है कि प्रदेशों के न्यूनाधिक होने से अनुभाग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसी प्रकार स्थिति घटने से वीतराग की पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग पर कोई प्रभाव नहीं होता है। अर्थात् पुण्य प्रकृतियों की फलदान शक्ति प्रदेश व स्थिति पर निर्भर नहीं करती है, इनसे प्रभावित नहीं होती है।
हम पहले कह आये हैं कि पुण्य तत्त्व, आस्रव तत्त्व व बंध तत्त्व ये तीनों तत्त्व भिन्न-भिन्न हैं। यहाँ इन्हीं पर संक्षेप में विचार करते हैं। पुण्यतत्त्व-पुण्यास्रव-पुण्यबंध में अंतर
पुण्यतत्त्व-पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति पुण्यम्। -सर्वार्थसिद्धि 6.3
'पुण' सुभे इति वचनात् पुणति शुभीकरोति पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम्। -अभिधानराजेन्द्र कोष भाग 5, पृष्ठ 981
अर्थात् जिससे आत्मा पवित्र हो उसे पुण्य कहा जाता है। इसके विपरीत जिससे आत्मा अपवित्र हो उसे पाप कहा जाता है। आत्मा अपवित्र होती है विकारी भाव से, विभाव से। अत: विकारों में कमी आना ही