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मुक्ति में पुण्य सहायक, पाप बाधक
प्रकृति है और पाप प्रकृति है तथा सम्यक् चारित्र का बाधक कारण अनंतानुबंधी आदि कषाय है जो चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं एवं पाप प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार मोक्ष प्राप्ति के हेतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र इन तीनों के बाधक कारण पाप रूप दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं। मोहनीय कर्म के अतिरिक्त अन्य कोई कर्म या कारण इनका बाधक नहीं है। तात्पर्य यह है कि मुक्ति प्राप्त कराने वाली सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों साधनाओं का बाधक व घातक कारण मोहनीय कर्म है, जो पाप कर्म है।
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मोह अर्थात् कषाय ही समस्त पाप कर्मों के स्थिति-बंध व अनुभाग-बंध का हेतु है। मोह क्षीण होने से समस्त पाप प्रकृतियों का बंध क्षीण होने लगता है। मोह के क्षय होते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय ये तीनों घाती कर्म जो एकांत पाप कर्म हैं, क्षय हो जाते हैं। मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से केवल ज्ञान, दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से केवलदर्शन और अंतराय कर्म के क्षय से अनंत दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं और जब तक चारित्र मोह का अंश मात्र भी उदय रहता है तब तक घाती कर्मों का बंध होता रहता है। जैसा कि दसवें सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में संज्वलन लोभ नामक अति सूक्ष्म कषाय का उदय रहता है। इस उदय से ज्ञानावरणीय आदि घाती कर्मों का बंध निरंतर होता रहता है। घाती कर्म ही जीव के गुणों का घात करते हैं जिससे केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि जीव के गुण प्रकट नहीं होते हैं। इन गुणों के प्रकट हुये बिना मुक्ति कदापि संभव नहीं है। अतः मुक्ति में, मुक्ति के मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में बाधक कारण घातीकर्म ही है। जो एकांत पाप रूप हैं। अत: पाप कर्म ही मुक्ति के मार्ग में बाधक हैं, पुण्य कर्म नहीं।