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पुण्य-पाप तत्त्व
है। यह कहा जा सकता है कि पुण्य के अनुभाग का सद्प्रवृत्तियों में जितना उत्कर्ष (उत्कर्षण) होता है उससे भी संयम, त्याग, तप व ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना से पुण्य - प्रकृतियों के अनुभाग में विशेष उत्कर्ष (उत्कर्षण) होता है, वृद्धि होती है। यही कारण है कि साधक ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विशुद्धि पर जितना-जितना गुणस्थान पर आगे बढ़ता जाता है उतना ही अधिक पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग भी बढ़ता जाता है। कहा भी हैतत्रोत्कृष्टविशुद्धपरिणामनिमित्तः सर्वशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबन्धः। - राजवार्त्तिक 6.3
अर्थात् उत्कृष्ट विशुद्ध परिणाम से समस्त शुभ (पुण्य) प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि संयम, त्याग, तप व ज्ञान-दर्शन - चारित्र रूप साधना पुण्य के उपार्जन व उत्कर्ष में हेतु है, पुण्य के अनुभाव के क्षय में लेशमात्र भी नहीं। इस प्रकार संवरनिर्जरा रूप संयम-त्याग तप आदि किसी भी साधना से पुण्य का क्षय हो नहीं सकता। इनसे पुण्य के अनुभाग में वृद्धि ही होती है। यह सर्वविदित है कि पुण्य-पाप तत्त्व का संबंध उनके अनुभाग से ही है, स्थिति बंध से नहीं। दया, दान, परोपकार, वात्सल्य आदि सद्प्रवृत्तियों से पुण्य का उपार्जन ही होता है।
शुभाशुभौ मोक्षबंधमार्गी अर्थात् शुभ योग (पुण्य) मोक्ष मार्ग है और अशुभ योग (पाप) बंध का मार्ग है। अनन्त सामर्थ्यवान् वीतराग प्रभु के भी चौदहवें गुणस्थान के पूर्व तक नियम से सदैव शुभ योग रहता ही है। अनन्तदानी होना वीतराग का स्वभाव ही है। आशय यह है कि साधना के अन्तिम क्षण तक, मुक्ति के पूर्व क्षण तक पुण्य का सद्भाव बना ही रहता है।