________________
164 ---
--- पुण्य-पाप तत्त्व
बंध होना और 4. पुण्यानुबंधी पुण्य-पुण्य के उदय में पुण्य का अनुबंध होना। इस चौकड़ी में पुण्य व पाप दो प्रकार से दिये गये हैं। एक प्रकार में बंध के रूप में पुण्य और पाप को लिया गया है जिसे पुण्यानुबंध व पापानुबंध कहा गया है। दूसरे प्रकार में उदय के रूप में पुण्य-पाप का ग्रहण किया है जिसे पुण्य का उदय व पाप का उदय कहा गया है।
प्रत्येक छद्मस्थ जीव के प्रतिपल पुण्य व पाप इन दोनों कर्मों का बंध व उदय होता रहता है। ऐसी स्थिति में पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों के उदय में से पुण्य के उदय को लिया जाय या पाप के उदय को लिया जाय तथा इसी प्रकार के दोनों कर्मों के बंध में से पाप के बंध को लिया जाय या पुण्य के बंध को लिया जाय, यह प्रश्न उपस्थित होता है। उदाहरणार्थ कोई मनुष्य सातवीं नारकी की भयंकर पाप प्रकृति का बंध कर रहा है, उस समय वह अनंत पुण्य रूप पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, अगुरुलघु आदि अनेक पुण्य प्रकृतियों का बंध भी कर रहा है और इन पुण्य प्रकृतियों का उदय भी उसके है तथा ज्ञानावरणीय, मोहनीय आदि पाप कर्मों का उदय भी है अर्थात् उसके पुण्य व पाप दोनों कर्मों का उदय एवं दोनों का बंध हो रहा है। ऐसी स्थिति में उसके पाप का उदय माना जाय या पुण्य का उदय माना जाय, पाप का बंध माना जाय या पुण्य का बंध माना जाय और उपर्युक्त चौकड़ी का कौनसा प्रकार या भेद माना जाय इसका निर्णय कैसे किया जाय, यह प्रश्न व जिज्ञासा उठना स्वाभाविक ही है।
यहाँ प्रथम पापानुबंधी पाप किसे माना जाय इस पर विचार करते हैं। कर्म प्रकृतियों के बंध के आधार पर तो यह निर्णय हो नहीं सकता है, क्योंकि पुण्य और पाप कर्मों की प्रकृतियों का बंध दसवें गुणस्थान तक