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पुण्य के अनुभाग का क्षय किसी साधना से नहीं
कर्म-बंध पुण्य रूप हो या पाप रूप, घाती हो या अघाती या अन्य किसी प्रकार का हो वह उदय में आकर अपना फल देकर क्षय (निर्जरित) होता है। कर्मक्षय की यह प्रक्रिया प्राकृतिक है। साधक कर्म का क्षय संवर, निर्जरा आदि साधना के द्वारा भी करता है। यहाँ इसी दृष्टि से पुण्य के क्षय पर विचार किया जा रहा है। जो पुण्य को किसी भी दृष्टि से हेय मानते हैं उन्हें पुण्य का क्षय करना अभीष्ट होगा और पुण्य का क्षय दया, दान, सेवा, करुणा आदि सद्प्रवृत्तियों, संयम, त्याग, तप, क्षमा, मार्दव, आर्जव, ज्ञान-दर्शन-चारित्र पालन रूप किसी भी साधना से नहीं हो सकता, क्योंकि इन सबसे कषाय में कमी होती है और यह नियम है कि जितनी कषाय में कमी होती है उतनी ही परिणामों में विशुद्धि बढ़ती है और विशुद्धि की वृद्धि से पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती है। यह भी नियम है कि संयम-त्याग-तप और ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना से कषाय में विशेष रूप से कमी होती है। जो विशेष विशुद्धि में कारण है। यह विशुद्धि सद्प्रवृत्तियों से होने वाली विशुद्धि से विशेष होती है। जिससे कर्म सिद्धांत के अनुसार पूर्व अर्जित सत्ता में स्थित पाप प्रकृतियों के अनुभाग व स्थिति में विशेष कमी होती है एवं पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का उत्कर्षण होता