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--- पुण्य-पाप तत्त्व
पुण्य की समस्त प्रकृतियाँ अघाती कर्मों की हैं। अघाती कर्म उसे ही कहते हैं जो जीव के किसी भी गुण का अंश मात्र भी घात न करे, जिससे जीव को कुछ भी हानि न हो। यदि अघाती कर्म जीव को कुछ भी हानि पहुँचाने वाले होते, अंश मात्र भी किसी गुण का घात करने वाले होते तो जैनागम में इन्हें देशघाती कहा जाता। इन कर्मों के अघाती विशेषण इसलिए लगाया गया है कि घाती कर्मों के समान कोई इन्हें भी जीव के किसी गुण का अंश मात्र भी घात करने वाला न समझ लें अन्यथा इनके अघाती विशेषण लगाने की आवश्यकता ही नहीं थी। अभिप्राय यह है कि पुण्य से न तो किसी साधना में बाधा पड़ती है, न यह मुक्ति में बाधक है और न इससे जीव के किसी गुण का घात ही होता है। मुक्ति-प्राप्ति में, मुक्ति-प्राप्ति के मार्ग (साधना) में केवल घाती-पाप कर्म ही बाधक होते हैं। यही नहीं जब तक पुण्य कर्मों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतुःस्थानिक नहीं हो जाता, तब तक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान नहीं होता है और यही अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट नहीं हो जाता है तब तक यथाख्यात चारित्र नहीं होता है।
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