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मुक्ति में पुण्य सहायक, पाप बाधक --
--------- 155 पुण्य का उपार्जन संयम अर्थात् पाप के त्याग रूप निवृत्तिपरक साधना से तथा दया, दान, मैत्री, सेवा, वात्सल्य रूप प्रवृत्तिपरक साधना से होता है। अत: पुण्य साधना का फल होने से मुक्ति में सहायक होता है, बाधक नहीं। इस प्रकार पुण्य, कर्म बंध का कारण नहीं है, बल्कि पाप कर्मों के क्षय का हेतु है। इसी पर प्रकाश डाला जा रहा है
कषाय की कमी रूप विशुद्धि से पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती है जिससे समस्त पाप व पुण्य प्रकृतियों के स्थिति बंध में कमी आती है और सत्ता में स्थित समस्त कर्मों की स्थिति घटती है (स्थिति का क्षय कर्मों का क्षय है) तथा नई पाप प्रकृतियों के अनुभाग बंध में कमी होती है और सत्ता में स्थित पाप प्रकृतियों के अनुभाग में भी कमी होती है। इस प्रकार पुण्य के अनुभाग में वृद्धि की अवस्था में पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग में कमी आती है व इनकी स्थिति का घात होता है। तात्पर्य यह है कि पुण्य का उत्कर्ष पाप कर्म के क्षय का कारण है, कर्म बंध का कारण नहीं। पाप कर्म के क्षय में सहायक होने से पुण्य संसार में रोके रखने का एवं संसार वृद्धि या संसार-परिभ्रमण का कारण नहीं है। अत: पुण्य को संसार-भ्रमण का कारण मानना अनुचित है।
कर्म-बंध व संसार परिभ्रमण का कारण राग-द्वेष रूप कषाय है। कषाय पाप रूप ही होता है, पुण्य रूप नहीं। कषाय के अभाव में अकेले योग से कर्मबंध नहीं होता। कषाय की तीव्रता से ही मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद व अशुभ योग रूप दुष्प्रवृत्तियों की उत्पत्ति होती है। कषाय की कमी से मिथ्यात्व आदि के क्षय करने का सामर्थ्य आता है। इस सामर्थ्य के सदुपयोग से ज्ञानीजन पाप की दुष्प्रवृत्ति का त्याग कर संयममय जीवन अपनाकर अपना कल्याण कर लेते हैं।