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--- पुण्य-पाप तत्त्व जो जीव प्राप्त सामग्री व सामर्थ्य का उपयोग त्याग में न कर विषय भोग में करते हैं वे अपने सामर्थ्य को खो देते हैं। फिर समस्त दशाओं व दिशाओं में इधर-उधर भटकते रहते हैं। आशय यह है कि सद्प्रवृत्तियों से उद्भूत सामर्थ्य का उपयोग त्याग में कर राग-द्वेष से मुक्त होना है। ये सद्प्रवृत्तियाँ किसी भी प्रकार से अहित की कारण नहीं हैं, इसलिये हेय या त्याज्य नहीं हैं। इसके विपरीत पाप कर्म के क्षय की हेतु हैं। इसलिये उपादेय व ग्राह्य हैं, परंतु ये आत्मा से भिन्न होने से साधन रूप हैं। अत: इन्हें साध्य मान लेने में साध्य की ओर प्रगति होने में अवरोध होता है। जबकि इनके प्रति असंग भाव रखने से साध्य की ओर तीव्र गति से प्रगति होती है।
- इस प्रकार साधक, साधन, साध्य इन सब अवस्थाओं में सद्प्रवृत्तियाँ अपनी उपादेयता बनाये रखती हैं। इनका निषेध कहीं नहीं कहा है। यह अवश्य है कि ये निरंतर नहीं चल सकती। प्रवृत्ति के अंत में निवृत्ति आती ही है। इस निवृत्ति का भी महत्त्व है। इस निवृत्ति से शक्ति का प्रादुर्भाव होता है जो सद्प्रवृत्ति करने में सहायक होता है। इस प्रकार सद्प्रवृत्ति (समिति) और निवृत्ति (गुप्ति) ये दोनों साधन रूप हैं या यों कहें कि साधना की प्रगति के लिए ये दाएं-बाएँ पैर के समान हैं। साधना में दोनों का ही महत्त्व है। इनमें से कोई भी उपेक्षा करने योग्य नहीं है।
दया, दान, करुणा, वात्सल्य, अनुकम्पा, मैत्री, वैयावृत्त्य (सेवा), परोपकार आदि भाव गुण हैं, दोष नहीं। गुण स्वभाव रूप होते हैं। स्वभाव को ही धर्म कहते हैं। अत: ये धर्म हैं। यह नियम है कि स्वभाव या धर्म से कर्म का बंध नहीं होता है। कर्म का बंध तो अधर्म से होता है। अधर्म, दोष, पाप व विभाव पर्यायवाची हैं। गुण, स्वभाव या धर्म सदैव उपादेय होता है, कभी भी, कहीं भी त्याज्य या हेय नहीं होता है। अत: उपर्युक्त