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पुण्य-पाप तत्त्व
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पाप प्रकृतियों का अनुभाव बंध व उसकी वृद्धि, कषाय व कषाय की वृद्धि से होती है। लेकिन पुण्य प्रकृतियों में इससे विपरीत होता है। अर्थात् जैसेजैसे कषाय की वृद्धि होती है वैसे-वैसे पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग घटता जाता है और कषाय में कमी से पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता जाता है अतः पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि का कारण कषाय नहीं है, प्रत्युत कषाय की कमी है। अतः पाप पुण्य का संबंध अनुभाग से है स्थिति से नहीं, कारण कि पुण्य व पाप की सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है। इसीलिये तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 6, सूत्र 3-4 की व्याख्या करते हुए राजवार्तिक टीका में कहा है
सर्वोत्कृष्टस्थितीनाम् उत्कृष्टसंक्लेशहेतुकत्वात्.....अनुभागबंधं प्रत्येतदुक्तम्। अनुभागबंधो हि प्रधानभूतः तन्निमित्तत्त्वात् सुखदुःखविपाकस्य । तत्रोत्कृष्ट विशुद्धपरिणामनिमित्त: सर्वशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबंध: । उत्कृष्ट सं क्लेशपरिणामनिमित्त: सर्वाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबंधः।
अर्थ-यह नियम है कि सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है। अत: यहाँ अनुभाग बंध की अपेक्षा इस सूत्र को लगाना चाहिये। पुण्य-पाप में अनुभाग बंध प्रधान है, वही सुख-दु:ख रूप फल का निमित्त होता है। समस्त शुभ पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से होता है और समस्त अशुभ (पाप) प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है।