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पुण्य-पाप की उत्पत्ति - वृद्धि-क्षय की प्रक्रिया
का अपकर्षण (ह्रास) होता है और पाप प्रकृतियों के अनुभाव का उत्कर्षण ( वृद्धि) होता है एवं कषाय के क्षय ( ह्रास) से पूर्वबद्ध पुण्य प्रकृतियों के अनुभाव का उत्कर्षण (वृद्धि) होता है तथा पाप प्रकृतियों के अनुभाव का अपकर्षण होता है।
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उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कषाय की वृद्धि जितनी अधिक होती है उतना पुण्य-पाप कर्मों का बंध (स्थिति बंध) अधिक होता है और कषाय के क्षय (ह्रास) से पुण्य-पाप दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय (स्थिति बंध का क्षय) होता है, परंतु कषाय की वृद्धि से पाप प्रकृतियों का अनुभाव बढ़ता है और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाव घटता है। इससे यह भी फलित हुआ कि पुण्य प्रकृतियों का जितना आस्रव व अनुभाग बढ़ता है उतना ही पाप प्रकृतियों का ह्रास होता है।
इन सब तत्त्वों के द्रव्य व भाव रूप पर विचार करें। जीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन सबके भावात्मक रूप शुभ व अशुभ अध्यवसाय हैं। जीव के स्वभाव, पुण्य तत्त्व, पुण्यास्रव, पुण्य का अनुभाव, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सबका भावात्मक रूप एक ही है और यह शुभ अध्यवसाय है और इनका द्रव्यात्मक रूप शुभ योग और फल शुभ पुद्गल कर्मों का अर्जन व उनका फल देना है जो नाना प्रकार का है। इसी प्रकार जीव के विभाव, पाप, पापास्रव, पाप का अनुभाव है। इन सबका एक ही भावात्मक रूप है और वह अशुभ अध्यवसाय है तथा द्रव्यात्मक रूप अशुभयोग और फल अशुभ पुद्गल कर्मों का उपार्जन, बंध व उनका विपाक है जो नाना प्रकार का है।
जीव के परिणाम ही मुक्ति व बंध के मूल हेतु हैं। द्रव्य कर्म तो परिणामों के अनुरूप निसर्ग से स्वतः उत्पन्न होते हैं। जीव के शुभ परिणाम मुक्तिदाता हैं, क्योंकि ये कषाय के क्षय (ह्रास) से होते हैं तथा इनसे पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय (स्थिति का क्षय ) होता है। इसके