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------ पुण्य-पाप तत्त्व कषाय में जितनी हानि-वृद्धि होगी आयु कर्म की तीन शुभ प्रकृतियों को छोड़कर समस्त पुण्य-पाप की प्रकृतियों का स्थितिबंध कम या अधिक होगा। कषाय की हानि होने पर स्थितिबंध कम होगा। यही सिद्धांत पहले के बंधे हुए कर्मों की जो स्थिति है उस पर भी घटित होता है। कषाय की हानि से पूर्व बद्ध समस्त कर्म प्रकृतियों की स्थिति बंध का अपवर्तन (क्षय) होता है और कषाय की वृद्धि से पूर्वबद्ध समस्त कर्म प्रकृतियों के स्थितिबंध का उद्वर्तन (वृद्धि) होता है। इस प्रकार पूर्व में बँधा व वर्तमान में बँधने वाला सम्पूर्ण स्थितिबंध कषाय पर निर्भर करता है। कषाय के क्षय से स्थिति का क्षय होता है और कषाय की वृद्धि से स्थिति बढ़ती है। स्थिति बंध ही कर्मों को आत्मा के साथ बाँधे रखने वाला होता है।
कर्मबंध की विद्यमानता स्थितिबंध पर ही निर्भर करती है। स्थितिबंध की उत्पत्ति व वृद्धि होती है कषाय के उदय व वृद्धि से अर्थात् औदयिक भाव से। इसलिए जैनागम में व कर्म सिद्धांत में एक मात्र औदयिक भाव (कषाय) को ही कर्म बंध का कारण कहा गया है। स्थितिबंध का नियम तीन शुभ आयु को छोड़कर समस्त पुण्य-पाप प्रकृतियों पर समान रूप से लागू होता है। परंतु अनुभाग में ऐसा नहीं है। कारण कि अनुभाग स्वभाव का अनुसरण करता है। अत: शुभ स्वभाव वाली पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग कषाय की हानि से बढ़ता है और कषाय की वृद्धि से घटता है। सीधे शब्दों में कहें तो स्थिति बंध से ठीक विपरीत सिद्धांत अनुभाग पर लागू होता है अर्थात् पुण्य प्रकृतियों का स्वभाव व अनुभाव शुभ होता है और कषाय अशुभ होता है। ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। कषाय की क्षीणता से शुभ व शुद्ध भावों से पुण्य प्रकृतियों का स्वभाव उत्पन्न होता है व बढ़ता है। इसमें कषाय का उदय कारण न होकर कषाय का क्षय या ह्रास कारण होता है। इसके विपरीत पाप प्रकृतियों का स्वभाव व अनुभाव बढ़ता व घटता है। यही नियम पुण्य-पाप प्रकृतियों पर भी लागू होता है अर्थात् कषाय की वृद्धि से पूर्वबद्ध पुण्य-पाप प्रकृतियों के अनुभाव