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पुण्य-पाप तत्त्व
विपरीत जीव के अशुभ भाव कर्म बंध के हेतु होते हैं। क्योंकि ये कषाय की वृद्धि से होते हैं जिससे पुण्य और पाप इन दोनों प्रकार के कर्मों के स्थिति बंध में वृद्धि होती है।
जीव के कुल पाँच भाव हैं। इनमें से औदयिक भाव ही कर्मबंध के कारण हैं क्योंकि इन अशुभ अध्यवसायों से पापास्रव व पाप प्रकृतियों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाव व प्रदेशबंध नियम से होता है। इनसे पुण्य प्रकृतियों का आस्रव, प्रकृति, प्रदेश व अनुभाव का सर्जन नहीं होता है प्रत्युत इन सबका ह्रास ही होता है। केवल पुण्य प्रकृतियों का स्थिति बंध होता है। परंतु पुण्य प्रकृतियों का अनुभाव शुभ होने से पुण्य कर्मों का फल शुभ ही मिलता है फिर वे भले ही कितने ही काल तक बँधे रहें। ये जीव के लिए कभी अशुभ होते ही नहीं हैं, इनसे जीव को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती है। शेष रहे तीन भाव - औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक, ये बंध के कारण नहीं हैं । औदयिक भाव ही, इनमें भी कषाय भाव ही कर्मबंध का कारण है । औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक, ये तीनों भाव शुभ अध्यवसाय, कषाय की मंदता व क्षय के सूचक हैं। ये तीनों भाव शुभ अध्यवसाय रूप होने से मोक्ष प्रदायक हैं। इन शुभ व शुद्ध भावों से पाप कर्म क्षय होते हैं, कर्म-बंध नहीं होता है।
तात्पर्य यह है कि नव ही तत्त्वों का एवं इनसे संबंधित पुण्य-पाप का भावात्मक रूप शुभ-अशुभ भाव है। अशुभ भाव पाप से संबंधित पाप तत्त्व, पाप प्रवृत्ति, पापास्रव, पाप कर्मों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति व अनुभाव बंध का एवं पुण्य प्रकृतियों के स्थिति बंध का हेतु है। इस प्रकार अशुभ भाव-औदयिक भाव आत्मा के आंतरिक गुणों के घातक एवं बाह्य में शरीर इन्द्रिय-प्राण आदि के हानि के हेतु हैं। इसके विपरीत शुभ भाव आंतरिक गुणों के एवं बाह्य शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदि शुभ प्रकृतियों के विकास के हेतु हैं। पुण्य तत्त्व पुण्यास्रव, पुण्य कर्म के प्रकृति, प्रदेश,