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पुण्य-पाप की उत्पत्ति-वृद्धि-क्षय की प्रक्रिया -------
------- 147 अनुभाव इनमें से किसी से भी जीव को हानि नहीं होती है। प्रत्युत जितनी इनकी वृद्धि होती है उतना ही पाप के सब रूपों का क्षय होता है। पाप ही जीव को संसार में रोके रखने का, रुलाने, भव भ्रमण कराने का हेतु है, पुण्य नहीं। संवर और निर्जरा तत्त्व के जितने भेद हैं उन सबसे पुण्य का उपार्जन एवं वृद्धि ही होती है। आशय यह है कि पुण्य का उपार्जन क्षायिक,
औपशमिक, क्षायोपशमिक, कषाय की मंदता, संवर, तप, संयम आदि जितने भी मोक्ष देने वाले तत्त्व हैं उन सबसे होता है। पुण्य तत्त्व आत्मा का सर्वांगीण, सर्वतोमुखी विकास करने वाला है। पुण्य आत्मा के लिए अहितकर नहीं है। आत्मा का अहित पाप से ही होता है।
कषाय में कमी होना शुभ भाव है। शुभ भाव को ही प्रकारान्तर से शुभयोग, विशुद्धि, शुद्धोपयोग व पुण्य कहते हैं। अत: पुण्य और पुण्य का फल सभी शुभ है, आत्मा के लिए हितकर है।
___ तात्पर्य यह है कि पुण्य की उत्पत्ति व वृद्धि क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक रूप शुभ भावों से शुभ योग (सद्प्रवृत्ति) से होती है। शुभ योग से पुण्यास्रव, पुण्य कर्म के प्रकृति, प्रदेश व अनुभाव का सर्जन होता है। पुण्य के स्थिति-बंध का क्षय पाप के साथ स्वत: हो जाता है। इसके लिए अन्य किसी विशेष साधना की आवश्यकता नहीं होती है। इसके विपरीत पाप की उत्पत्ति व वृद्धि का कारण औदयिक भाव है। औदयिक भाव में भी कषाय का उदय ही मुख्य है। औदयिक भाव से अशुभ योग (दुष्प्रवृत्ति) होता है जिससे पापास्रव होता है तथा पाप के प्रकृति, स्थिति, अनुभाव व प्रदेश का अर्जन व बंध होता है। पाप के क्षय का उपाय हैकषाय का ह्रास अर्थात् जिन भावों से पुण्य का उपार्जन व वृद्धि होती है वे ही भाव पाप-क्षय के हेतु हैं।
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