________________
(15)
पुण्य-पाप की उत्पत्तिवृद्धि-क्षय की प्रक्रिया
जीव में शुभ-अशुभ परिणाम (भाव) उत्पन्न होते हैं। इनमें शुभ भाव भावपुण्य या पुण्य तत्त्व और अशुभ भाव को भावपाप या पाप तत्त्व कहते हैं। इन शुभ और अशुभ भावों के अनुरूप मन-वचन-काय की शुभअशुभ प्रवृत्ति होती है, उसे योग कहते हैं। शुभ प्रवृत्ति शुभयोग और अशुभ प्रवृत्ति अशुभ योग कही जाती है। योगों के निमित्त से कार्मण पुद्गल वर्गणाएँ आकर्षित होकर आत्मा की ओर आती हैं और कर्म रूप ग्रहण करती हैं, इसे आस्रव कहते हैं। शुभयोग से शुभ आस्रव होता है, जिसे पुण्यास्रव कहते हैं और अशुभ योग से अशुभ आस्रव होता है, जिसे पापास्रव कहते हैं।
योग या प्रवृत्ति शुभ हो या अशुभ, इनसे आत्म-प्रदेशों में परिस्पंदन होता है, जिससे कार्मण-वर्गणाओं के पुद्गल आते हैं और आत्म-प्रदेशों से मिलते हैं। ये कार्मण वर्गणाओं के पुद्गल प्रदेश कहलाते हैं। आत्म-प्रदेशों में जितना परिस्पंदन अधिक होता है उतनी ही अधिक संख्या में प्रदेशों का सर्जन होता है। इस प्रकार पुण्य या पाप कर्मों की प्रकृति व प्रदेश का सर्जन व उपार्जन योगों से होता है।
कर्म-प्रदेशों का आत्मा से जुड़े रहने के काल को स्थिति बंध कहते हैं एवं कर्म के स्वभाव की तीव्रता-मंदता को अनुभाव (अनुभाग) कहते हैं।
अनुभाग और स्थितिबंध इन दोनों का निर्माण कषाय से होता है।