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पुण्य की अभिवृद्धि से पाप का क्षय
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परिस्थिति में हर समय कर सकता है और अपने पाप का क्षय कर सकता है, पुण्य की वृद्धि कर सकता है। अतः किसी के पास खिलाने-पिलाने आदि दान देने योग्य वस्तुएँ नहीं हों तब भी वह हर समय मन से शुभ विचार करने में स्वाधीन है और मन से शुभ विचार करने का महत्त्व वस्तुओं के दान देने के समान ही है। अत: साधक को सदा शुभ विचार करने में एवं उन्हें यथासंभव क्रियात्मक रूप देने में सदा तत्पर रहना चाहिए। इससे पाप का क्षय एवं पुण्य का उपार्जन होता रहेगा।
पुण्य : कर्मक्षय का हेतु
बंध चार प्रकार का है। इनमें से प्रकृति बंध व प्रदेश बंध का कारण मन, वचन और काया की प्रवृत्ति रूप योग है और स्थिति बंध व अनुभाग बंध का कारण राग, द्वेष, कषाय (आसक्ति) है। परंतु इन चारों प्रकार के बंधनों में से प्रकृति बंध, अनुभाग बंध व प्रदेश बंध ये तीन प्रकार के बंधन स्थिति बंध पर ही निर्भर करते हैं, क्योंकि यदि स्थिति बंध न हो तो इन तीनों प्रकार के बंधनों का बंध ही न हो। अतः स्थिति बंध ही मुख्य बंध है। स्थिति बंध से ही कर्म सत्त्व या सत्ता को प्राप्त होते हैं। कर्मों की सत्ता स्थिति बंध पर ही निर्भर करती है।
स्थिति बंध कषाय से होता है। कारण कि आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म का निरंतर बंध हो रहा है, उन सातों कर्मों की समस्त प्रकृतियों की स्थिति में वृद्धि होती है । यहाँ तक कि तीर्थङ्कर नामकर्म, मनुष्य गति, देवगति जैसी पुण्य प्रकृतियों की स्थिति में वृद्धि भी कषाय की वृद्धि से ही होती है। अर्थात् इन समस्त प्रकृतियों की स्थिति की वृद्धि उत्कृष्ट होने के कारण तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश भाव है और कषाय की कमी रूप विशुद्धि भाव से पाप-पुण्य रूप समस्त प्रकृतियों की स्थिति स्वत: घटती है। अत: कर्मों की स्थिति का बंध होना व बढ़ना अशुभ है। परंतु पुण्य के अनुभाग बंध पर उपर्युक्त कर्म - सिद्धांत का नियम लागू नहीं होता ।