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----- पुण्य-पाप तत्त्व बुरा न करने, बुरा न मानने, बुराई न सुनने से पाप रुकता है-पाप का संवर होता है। फिर उससे जो भी प्रवृत्ति होती है वह भली ही होती है, भलाई की ही होती है। यह भी नियम है कि जितनी हिंसा, झूठ, राग-द्वेष आदि पाप क्रिया रुकी है, घटती है, उतनी ही आत्मा में विशुद्धि होती है और आत्मा की जितनी विशुद्धि होती है उतनी पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती है। अत: पाप का न करना भी पुण्य की वृद्धि का हेतु है। विवेकीजन प्रत्येक काम करते हुए भी किसी के प्रति राग-द्वेष व बुराई करने से बचते हैं, तटस्थ रहते हैं, इससे वे पाप से तो बचते ही हैं साथ ही उनके पुण्य की अभिवृद्धि भी होती है। सारांश यह है कि पाप का त्याग ही संवर है, संवर से आत्मा की विशुद्धि होती है, जिससे पाप का अपवर्तन रूप क्षय व पुण्य के अनुभाग की वृद्धि होती है।
शरीर के लिए सहायक व सुविधाजनक अन्न, जल, वस्त्र, पाटपलंग आदि वस्तुएँ देने का जितना महत्त्व है उससे अधिक हृदय में अनुकम्पा भाव जगने का, हृदय की कठोरता पिघलने का, दूसरों का हित करने का भाव जाग्रत होने का महत्त्व है। मन में किसी के प्रति अहित का विचार त्यागने से पाप कर्मों का भारी क्षय होता है। हृदय में करुणाभाव नहीं है, धन देने की इच्छा नहीं है, परंतु किसी के दबाव से वस्तु, धन आदि दान देता है और मन में पछतावा है तो वह उत्तम प्रकार का पुण्य नहीं कहा गया है। इसी प्रकार कोई सम्मान, सत्कार, कीर्ति व आदर पाने के लिए दान देता है तो उसे उस कार्य का फल सम्मान, सत्कार रूप ही मिलता है जो उसके अहंकार को पुष्ट करने वाला होने से पाप का क्षय करने वाला नहीं है। अत: महत्त्व सद्प्रवृत्ति के साथ रही भावना का भी है। हृदय की भावना का क्रियात्मक रूप मन की प्रवृत्ति है। अत: महत्त्व मन के शुभअशुभ विचारों का है। मन के शुभ विचारों से पाप का क्षय एवं पुण्य की वृद्धि होती है और मन के अशुभ विचारों से पाप की वृद्धि एवं पुण्य में कमी होती है। मन से शुभ विचार प्रत्येक मानव, प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक