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पुण्य की अभिवृद्धि से पाप का क्षय ---- हो, सबका कल्याण हो, सबका मंगल हो, यह भावना वह मन से कर सकता है। भावात्मक भलाई करने में सब समर्थ एवं स्वाधीन हैं। क्रियात्मक भलाई व पुण्य में भी महत्त्व भावना का ही है। भावना रहित क्रियात्मक सेवा का मूल्य नहीं होता। कारण कि कोई व्यक्ति वस्तु, सम्पत्ति आदि की सेवा में लगता है परंतु उसमें कर्तृत्व भाव रूप करने का राग व फल की आसक्ति है, फल की आशा है तो वह सेवा या पुण्य घटिया श्रेणी का है। इससे पुण्य के अनुभाग में कमी होगी और स्थिति बंध अधिक होगा, जो शुभ नहीं है।
सद्प्रवृत्ति से जो पुण्य का उपार्जन होता है वह भी पाप के क्षय व निवारण से होता है। कारण कि सद्प्रवृत्ति दुष्प्रवृत्ति का अवरोध कर देती है। दुष्प्रवृत्ति जितनी कम होती जाती है, मिटती जाती है उतना ही नवीन पाप का उपार्जन रुकता जाता है तथा सत्ता में स्थित पुराने बँधे पाप कर्मों की स्थिति व अनुभाग का अपवर्तन एवं पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता जाता है। यह सब पाप के क्षय के ही रूप हैं। आशय यह है कि पुण्य का अभिवर्द्धन पाप के क्षय की अवस्था में होता है। अत: पुण्य का उपार्जन एवं वृद्धि पाप क्षय की सूचक है।
पूर्वोक्त अन्न, जल, वस्त्र आदि नव प्रकार के पुण्यों में से प्रथम पाँच वस्तुओं से संबंधित हैं जो प्राय: सभी गृहस्थों के यहाँ पाई जाती हैं, अत: इन्हें देकर पुण्योपार्जन किया जा सकता है। अगले चार पुण्य अन्य पर निर्भर न होकर स्वयं के तन, मन और वचन से संबंधित हैं। मन से सभी का भला चिंतन करना, नम्रता का व्यवहार करना, वचन से मधुर बोलना, शरीर से सेवा-शुश्रूषा करना आदि में सभी समर्थ व स्वाधीन हैं। अत: पुण्य करने में कोई पराधीन व असमर्थ हो, सो नहीं है।
यह नियम है कि पाप न करने से भी पुण्य का उपार्जन स्वत: होता है, पुण्य में वृद्धि होती है। जैसे किसी का बुरा न चाहने, बुरा न सोचने,