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बंध का मुख्य कारण कषाय है, योग नहीं ------ भेद व भिन्नता मिट जाती है। क्योंकि चीज वही दिखाई देती है जो अपने से भिन्न हो। जो अपने से अभिन्न होती है वह दिखाई नहीं देती है। अत: जब तक साधक को अपने में गुण होने का भास होता है तब तक उसमें और गुणों में एकत्व व अभिन्नता नहीं हुई, ऐसा समझना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि पुण्य के साथ रहा हुआ कषायभाव स्थिति बंध का कारण है। पुण्य का भी स्थिति बंध, कषाय, पाप व विकार का सूचक है अत: अशुभ है, परंतु इससे पुण्य अशुभ नहीं हो जाता है। उदाहरणार्थ शरीर के साथ लगा हुआ रोग शरीर के स्वास्थ्य के लिए घातक है, परंतु रोग हो जाने से शरीर बुरा नहीं हो जाता है, हेय नहीं हो जाता है, बुरा या हेय रोग ही होता है। इसी प्रकार पुण्य के साथ स्थिति बंध लगा होने से पुण्य हेय नहीं हो जाता है केवल स्थिति बंध ही बुरा है, अनुभाग बुरा नहीं है।