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--- पुण्य-पाप तत्त्व
तक साधक गुणों को अपनी देन मानता है तब तक उसमें मैं करता हूँ, मैंने गुणों को पैदा किया है, यह अहं भाव व कर्तृत्व भाव बना रहता है। जहाँ कर्तृत्व भाव है, अहंभाव है वहाँ बंध है। ऐसी साधना से दोष दबते हैं, दोषों का दमन होता है, परंतु दोष मिटते नहीं है। केवल दोषों का उपशम होता है, उदय व क्षय नहीं होता। वह उपशम श्रेणी करता है, जिसमें समस्त दोष सत्ता में ज्यों के त्यों विद्यमान रहते हैं। वे पुन: अति अल्पकाल में ही उदय में आकर उसका पतन कर देते हैं।
क्षपकश्रेणि वही कर सकता है जो कर्तृत्वभाव, कर्त्तव्य का अहंकार, श्रम युक्त साधना, अनुष्ठान या अन्य किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करता है, किसी भी प्रकार का संकल्प-विकल्प नहीं करता है, जो कर्म उदय के रूप में प्रकट हो रहे हैं उनसे असंग हो तादात्म्य तोड़ता है, उनका द्रष्टा रहता है, उन उदीयमान कर्मों के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है, उन्हें अच्छा-बुरा नहीं समझता है, ये कर्म क्यों उदय हो रहे हैं, ऐसा भी नहीं विचारता है, वह निर्विकल्पता से मिलने वाली आंशिक शांति के रस में रमण नहीं करता है। अनाश्रय (पराश्रय के त्याग) से मिली आंशिक स्वाधीनता के रस को महत्त्व नहीं देता है। उससे संतुष्ट नहीं होता है। तब वह इन्द्रियातीत, देहातीत, लोकातीत, भवातीत, गुणातीत होकर अनंत माधुर्य रूप वीतरागता का अनुभव करता है। ऐसा रस-एक बार चखने पर उसमें फिर परिवर्तनशील, क्षणिक एवं आकुलता युक्त विषय-रस की कामना कभी नहीं जगती है। इन्द्रिय, देह, लोक (संसार), गुण आदि इनसे सुख न लेना, इनके सुख को पसंद न करना ही इनसे अतीत होना है। जब साधक की सरलता, विनम्रता, सहजता, स्वाभाविकता इतनी बढ़ जाती है कि वह जीवन का अंग बन जाती है तो साधक गुणों से अभिन्न हो जाता है। फिर गुण और गुणी का, साध्य और साधक का, साधन और सिद्धि का