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--- पुण्य-पाप तत्त्व जोगं पडुच्च अर्थात् अशुभ योग की अपेक्षा आत्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं और तदुभयारंभी हैं, परंतु अनारंभी नहीं हैं।
उपर्युक्त सूत्र में शुभयोग की अपेक्षा प्रमत्तसंयमी को एकांत अनारंभी कहा है। अशुभ प्रवृत्ति को रोकने वाला होने से शुभ योग को संवर कहा है।
जैनागम उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा हैसव्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी खंतिक्खमे संजयबंभयारी। सावज्जजोगं परिवज्जयंतो, चरिज्ज भिक्खू सुसमाहिइंदिए।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 21, गाथा 13 अर्थात् “इन्द्रियों को संयम में रखने वाला भिक्षु सभी प्राणियों के प्रति दयालु व अनुकंपाशील रहे, क्षमावान, संयमी व ब्रह्मचारी हो तथा पाप प्रवृत्तियों का त्याग करता हुआ विचरण करे।" इस गाथा में साधु के लिए सर्व जीवों के प्रति दयालु व अनुकंपाशील रहने का स्पष्ट विधान है। यहाँ दया और अनुकंपा को भी संयम, ब्रह्मचर्य, क्षमा, सावद्ययोग-त्याग के समान ही स्थान व महत्त्व दिया गया है अर्थात् संवर व निर्जरा रूप धर्म कहा है।
प्रसिद्ध दिगबंराचार्य श्री वीरसेनस्वामी ने कषायपाहुड की जयधवला टीका में कहा है -सुहसुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो। -जयधवला पुस्तक 1, पृष्ठ 15। अर्थात् यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता। यहाँ आचार्य ने शुद्धभाव के समान शुभ भाव से भी कर्मक्षय होते हैं, स्पष्ट कहा है। तात्पर्य यह है कि शुभभाव कर्मबंध के कारण नहीं हैं, कर्मक्षय के कारण हैं।