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अहिंसा, पुण्य और धर्म
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रुलाता है, जीव को बाँधकर रखता है, अहितकर है, हेय है आदि धारणा निराधार व निर्मूल है। वस्तुत: पुण्य मुक्ति का सहयोगी है जो मुक्ति प्राप्ति पर स्वत: छूट जाता है। इसे त्यागने की जीवन में, साधना के क्षेत्र में आदि से अंत तक कहीं भी आवश्यकता नहीं पड़ती है । परंतु सद्गुणों का यह क्रियात्मक रूप ‘पुण्य’ साधन है साध्य नहीं, इसे सदैव ध्यान में रखना चाहिये। पुण्य प्रवृत्ति को साध्य मान लेना साधन को साध्य मान लेना है जो भूल है, इस भूल से बचने के प्रति साधक को सदैव सजग रहना चाहिए। प्रवृत्ति जीवन नहीं है। जीवन है-उसमें रहा हुआ त्याग रूप भाव। इसे कभी नहीं भूलना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि मानव मात्र में आंशिक रूप में आत्मा के अनुकंपा, क्षमा, सरलता आदि स्वाभाविक गुण विद्यमान हैं और इनमें इनका क्रियात्मक रूप दया, दान आदि न्यूनाधिक सद्प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. ने उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन 'सम्यक्त्व पराक्रम' के तीसरे बोल धर्मश्रद्धा के विवेचन में फरमाया है कि - "कोई भी जीव ऐसा नहीं है जो धर्म रहित हो। जीवन में धर्म का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है, यहाँ तक कि धर्म के बिना जीवन व्यवहार भी नहीं चल सकता। जो लोग धर्म की आवश्यकता स्वीकार नहीं करते उन्हें भी जीवन में धर्म का आश्रय लेना पड़ता है, क्योंकि धर्म का आश्रय लिए बिना जीवन व्यवहार निभ ही नहीं सकता है। उदाहरणार्थ पाँच और पाँच दस होते हैं, यह सत्य है और सत्य धर्म है। इसे स्वीकार करना होगा । "