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पुण्य-पाप तत्त्व
का स्थिति बंध तो क्षीण (क्षय) होता ही है, किंतु स्वयं पुण्य का स्थिति बंध भी क्षीण (क्षय-नाश) होता है जिससे संसार घटता है। यों कहें कि पुण्य के अनुभाग की वृद्धि अपने ही स्थिति बंध को क्षय करने वाली होती है, जबकि पाप सदा पुण्य और पाप दोनों के स्थिति बंध का उद्वर्तन ( वृद्धि) करने में, पाप को परिपुष्ट करने में, संसार बढ़ाने में सहायक होता है। ‘पुण्य' पाप कर्मों का अवरोध, निरोध व क्षय करने वाला एवं स्वयं अपना अनुभाग बढ़ाने वाला होता है।
पुण्य का फल द्विमुखी होता है - 1. परिणामों की विशुद्धि और 2. स्थितिबंध का क्षय। इस प्रकार एक ओर तो कषाय में कमी होती जाती है, परिणामों में विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, राग-द्वेष क्षीण होते जाते हैं, समता बढ़ती जाती है, जिससे कर्म क्षय होते जाते हैं, वीतरागता तथा मुक्ति की ओर प्रगति होती जाती है तथा दूसरी ओर स्थिति बंध का क्षय होने से संसार वास में अधिकाधिक कमी होती जाती है तथा संसार का किनारा निकट आता जाता है। इस प्रकार पुण्य की वृद्धि को परंपरा से मोक्ष का हेतु कहा जाता है।
पाप प्रवृत्ति सदैव सकाम ही होती है। निष्काम नहीं होती है, क्योंकि पाप के साथ भोगों की कामना लगी रहती है, परंतु पुण्य प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-सकाम और निष्काम। जिस शुभ प्रवृत्ति के साथ सांसारिक फल-प्राप्ति की कामना होती है वह सकाम पुण्य है। फल की कामना से स्थिति बंध होता है जो संसार बढ़ाने वाली होती है। कामना कषाय है, पाप है, अत: पुण्य के साथ रही हुई फल की कामना हेय, त्याज्य है, जैसे-गेहूँ के साथ रहे हुए कंकर त्याज्य हैं गेहूँ नहीं, नारियल के साथ लगी हुई जटा त्याज्य है गिरी नहीं, इसी प्रकार पुण्य के फल की कामना