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पुण्य-पाप का परिणाम
कर्म के बंध व क्षय का आधार जीव के परिणाम हैं। कहा भी हैपरिणामादो बंधो मोक्खो। -भावपाहुड 116, बंधपमोक्खो अज्झऽत्थेव। -अचारांग 195। परिणाम दो प्रकार के होते हैं-अशुभ और शुभ। अशुभ परिणामों को पाप और शुभ परिणामों को पुण्य कहा जाता है। जिस प्रकार एक घड़ा ओंधा रख देने पर उस पर जितने भी घड़े रखे जायेंगे वे सब ओंधे ही रखे जायेंगे। उसी प्रकार पाप रूप संक्लेश परिणाम से आस्रव, बंध, उदय, उत्कर्षण, संक्रमण आदि करण होते हैं। वे पापात्मक ही होते हैं और जिस प्रकार एक घड़ा (मटका) सीधा रख देने पर उसके ऊपर जितने भी घड़े रखे जायेंगे वे सब सीधे ही रखे जायेंगे उसी प्रकार पुण्य रूप विशुद्धि परिणाम में आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा बंध, उदय, सत्ता, अपकर्षण, संक्रमण आदि करण पुण्यात्मक ही होते हैं।
विशुद्धिभाव से अर्थात् पुण्यात्मक परिणाम एवं प्रवृत्ति से नवीन पुण्य के आस्रव में वृद्धि तो होती ही है, साथ ही अनेक अन्य बातें भी होती हैं, यथा-1. पुण्य तथा पाप कर्म प्रकृतियों की स्थिति का अपवर्तन होता है। 2. पाप प्रकृतियों के अनुभाव का अपकर्षण होता है। 3. पुण्य प्रकृतियों के अनुभाव (अनुभाग) का उत्कर्षण होता है। 4. पूर्वबद्ध पाप प्रकृतियों