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पुण्य-पाप का परिणाम --- का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है। 5. पाप के आस्रव में कमी होने रूप पापास्रव का निरोध अर्थात् संवर होता है। 6. कर्म प्रकृतियों की स्थिति का क्षय होने से कर्मों का क्षय अर्थात् निर्जरा होती है। 7. आत्म-विशुद्धि में स्वभाव की अभिव्यक्ति रूप मुक्ति होती है। इस प्रकार शुभ भाव रूप पुण्य तत्त्व कर्म-क्षय व मुक्ति का हेतु है। इसके विपरीत संक्लेश भाव से अर्थात् पापात्मक परिणाम व प्रवृत्ति से नवीन पाप कर्मों के आस्रव में वृद्धि होती है तथा अन्य बातें भी होती हैं। यथा-1. पुण्य-पाप प्रकृतियों की स्थिति का उद्वर्तन होता है। 2. पाप प्रकृतियों के अनुभाव का उत्कर्षण होता है। 3. पुण्य प्रकृतियों के अनुभाव का अपकर्षण होता है। 4. पूर्व बद्ध पुण्य प्रकृतियों का पाप प्रकृतियों में संक्रमण होता है। 5. पापास्रव में वृद्धि होती है। 6. कर्मों के स्थितिबंध में वृद्धि होने से संसार भ्रमण बढ़ता है। 7. कषाय या विभाव की वृद्धि होती है।
उपर्युक्त तथ्यों पर विचार करने पर पुण्य और पाप इन दोनों में सैद्धांतिक दृष्टि से आकाश-पाताल का अंतर है। 'पाप' कर्म बंध का कारण है और 'पुण्य' कर्म क्षय व मोक्ष का हेतु है। इसका प्रमुख कारण यह है कि संक्लेश भाव रूप पाप से पाप तथा पुण्य दोनों कर्मों की (तीन शुभ आयु कर्म की प्रकृतियों को छोड़कर) प्रकृतियों में स्थिति-बंध का उद्वर्तन अर्थात् वृद्धि होती है। जिससे संसार की वृद्धि होती है जबकि विशुद्धि भाव रूप पुण्य से पाप तथा पुण्य दोनों कर्मों के स्थिति-बंध का अपवर्तन (कमीक्षय) होता है जिससे संसार भ्रमण में कमी होती है। यह कमी मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्दृष्टि दोनों के ही होती है, परंतु मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि के यह कमी असंख्य गुणी अधिक होती है।
यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि पुण्य के द्वारा पाप कर्मों