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पुण्य-पाप तत्त्व सकता उसी प्रकार दया, दान आदि सकारात्मक अहिंसा को बुरा नहीं माना जा सकता। इन्हें बुरा या त्याज्य समझना न न्याययुक्त है, न युक्तियुक्त है, न आगम सम्मत है, न व्यवहार संगत है, प्रत्युत भयंकर भूल है।
यह भूल सर्वस्व नाश करने वाली है। इस भूल के रहते हुए साधक एक कदम भी साधना पथ में आगे नहीं बढ़ सकता, कारण कि जहाँ मानवता ही नहीं है वहाँ धर्म या साधना कैसे संभव हो सकती है ? यह सदैव स्मरण रहना चाहिये कि जिस क्रिया से राग-द्वेष, मोह आदि दोष बढ़े वह संक्लेश है, मोह है, पाप है। उसका पुण्य व धर्म में कोई स्थान नहीं है। पुण्य व धर्म से राग, द्वेष-मोह आदि दोष घटते ही हैं। भावों में विशुद्धि आती ही है। परंतु राग-द्वेष-मोह का उदय रहते हुये जैसे संयम और तप त्याज्य या बुरे नहीं होते हैं, वैसे ही सद्प्रवृत्तियाँ भी त्याज्य नहीं है। कारण कि उससे विषयासक्ति घटती ही है, बढ़ती नहीं है।
दया, दान आदि सद्गुणों के भावात्मक रूप का संबंध आत्म-भाव से, आत्मा से है, स्व से है, अविनाशी तत्त्व से है। अत: उसका फल
आंतरिक शांति, मुक्ति, प्रसन्नता, अमरत्व आदि भूतियों के रूप में मिलता है। परंतु इन सद्गुणों के क्रियात्मक रूप के लिए भौतिक (पौद्गलिक) पदार्थों का आश्रय लेना होता है। अत: इसका फल शरीर, मन, वाणी व अन्य भौतिक सामग्री की उपलब्धि के रूप में भी मिलता है। जिसके कारण-कार्य का मूल संबंध इस प्रकार है-सद्गुणों के भावात्मक रूप से आत्मा के राग-द्वेष आदि विकार घटते हैं, जिससे आत्मा की विशुद्धि या पवित्रता बढ़ती है। आत्मा की पवित्रता या विशुद्धि की वृद्धि से आत्मा का विकास होता है। आत्मा के विकास से ही आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुणों का विकास होता है। दर्शन गुण के विकास से ज्ञान व चिन्मयता (स्व-संवेदन)