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पुण्य-पाप तत्त्व
86 -- हेय व त्याज्य है" तथ्य हीन है, निराधार है तथा कर्म सिद्धांत, तत्त्वज्ञान, युक्ति और आगम विरुद्ध है।
जैन दर्शन में तत्त्व का निरूपण पाप कर्मों को ही लक्ष्य में रखकर किया गया है, पुण्य कर्मों को लेकर नहीं। कारण कि पाप आत्मा के पतन से होता है और पुण्य आत्मा के उत्थान से होता है। अत: ये दोनों परस्पर में विरोधी हैं। अत: आस्रव, संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्त्व में जो भेद पाप की अपेक्षा से होंगे, ठीक उसके विपरीत पुण्य की अपेक्षा से होंगे। इस प्रकार प्रत्येक तत्त्व में परस्पर में विरोधी भेदों को स्थान देना होगा, जिससे तत्त्व का स्वरूप ही लुप्त हो जाने का प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा। अत: तत्त्व का निरूपण पाप कर्मों के त्याग को ही लक्ष्य में रखकर किया गया है, पुण्य कर्मों के त्याग को नहीं।
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