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पुण्य-पाप तत्त्व
तप करता है इससे मिथ्यात्वी के कर्मों की निर्जरा होती है, परंतु यह निर्जरा कर्मों के क्षयोपशम रूप होती है - कर्मों के आत्यंतिक क्षय या उपशम रूप नहीं होती। कारण कि वह मिथ्यात्वी जीव अनशन, ध्यान आदि तप भी करता है, तो किसी दु:ख के भय से या विषय- कषाय जन्य सुख के प्रलोभन से करता है, निर्विकार होने के लिए नहीं करता है। अत: इसे साधना रूप धर्म नहीं कहा। दूसरी निर्जरा विकार रहित होने के लिए विशेष प्रकार के पुरुषार्थ रूप साधना करने से होती है। इससे कर्मों की निर्जरा सामान्य निर्जरा से असंख्य गुणी होती है। इस विशेष निर्जरा को सामान्य से पृथक् रूप से प्रस्तुत करने के लिए निर्जरा तत्त्व में स्थान दिया गया है तथा धर्म कहा गया है।
इसी प्रकार संवर को भी लें, कर्मों के आने के रुकने को संवर कहते हैं। यह संवर भी दो प्रकार का है - 1. स्वत: सहजभाव से होने वाला सामान्य संवर और 2. विशेष प्रयत्न पूर्वक विशेष कर्मों का आना रुकने रूप विशेष संवर। इनमें से प्रथम प्रकार के संवर में क्षयोपशम भाव से अर्थात् कषाय की कमी से स्वत: जितनी दुष्प्रवृत्ति कम हो रही है, जिससे उतना कर्मों का आना रुक रहा है, कर्म बंध कम हो रहा है, यह सामान्य संवर है जो न्यूनाधिक रूप से प्राणी मात्र के हर समय हो रहा है। इस संवर की दृष्टि से सभी प्राणी संवर युक्त हैं। परंतु इस सामान्य संवर को साधना रूप संवर में ग्रहण नहीं किया गया है, प्रत्युत जो राग-द्वेष आदि विकारों से बचने के लिए सम्यग्दर्शन पूर्वक विशेष संवर किया जाता है, उसे ही सामान्य संवर से पृथक् करने के लिए संवर रूप धर्म कहा है।
इस प्रकार संयम, त्याग, तप आदि सभी साधनाएँ दो प्रकार की हैं- 1. दु:ख के भय व सुख के प्रलोभन से की जाने वाली और 2. विषय