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--- पुण्य-पाप तत्त्व
वाला कहा है अर्थात् धर्म कहा है। आत्मा को पवित्र करने वाले पुण्य को अधर्म, हेय या त्याज्य माना जाय तो आत्मा का पतन करने वाला पाप तो हेय व त्याज्य है ही। फिर तो दोनों हेय ही हुए। दोनों में कोई अंतर ही नहीं हुआ, ऐसा ही मानकर कुछ विद्वानों ने आत्मा को पवित्र करने वाले पुण्य को सोने की शूली और आत्मा का पतन करने वाले पाप को लोहे की शूली कहा है। शूली लोहे की हो या सोने की, शूली पर चढ़कर मृत्युदण्ड पाने वाले को इससे क्या अंतर पड़ता है? अर्थात् कुछ नहीं। क्योंकि ऐसा तो होता नहीं है कि सोने की शूली पर मृत्युदंड पाने वाले की मृत्यु प्रसन्नतापूर्वक होती हो अथवा मृत्यु नहीं होती हो। शूली सोने की हो अथवा लोहे की, उसका काम मौत के घाट उतारना है, मृत्यु व दु:ख दोनों तो समान ही मिलते हैं। दोनों का फल समान है। इस दृष्टि से पाप को लोहे की बेड़ी या लोहे की शूली मानना तथा पुण्य को सोने की बेड़ी या शूली मानना पुण्य-पाप को समान मानना है व समान स्तर पर ला देना है। फिर पुण्य का पाप से भिन्न कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता है। इस प्रकार दया, दान, मैत्री, रक्षा आदि पुण्य रूप शुभ प्रवृत्तियों को हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि पाप रूप अशुभ प्रवृत्तियों की कोटि में ला देना है, जो सर्वथा अनुपयुक्त एवं अनुचित है।
उपर्युक्त मान्यता को स्वीकार करना पुण्य करके अपनी हानि करना है। इससे उसका दया, दान आदि शुभ या सद्कार्य व पुण्य न करना ही श्रेष्ठ होगा, जिससे जन्म-मरण व संसार-परिभ्रमण रूप दुःख को बढ़ावा तो न मिले। अभी पाप प्रवृत्ति से संसार-परिभ्रमण हो रहा है, वही बहुत है। फिर पुण्य करके उस परिभ्रमण को बढ़ाने की मूर्खता क्यों की जाय? आशय यही है कि इस मान्यता को स्वीकार करना दया, दान, करुणा, सेवा रूप