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--- पुण्य-पाप तत्त्व
जित
जिस प्रकार सागर पार पहुँचने पर नौका छूट जाती है, उसी प्रकार संसार सागर पार पहुँचकर मुक्त होने पर पुण्य स्वत: छूट जाता है अथवा जिस प्रकार औषधि रोग को मिटाकर स्वयं छुट्टी पा लेती है, उसी प्रकार 'पुण्य' पाप रूप विकारों को नष्टकर स्वयं छूट जाता है। इसीलिये आगम में पुण्य के क्षय करने का कहीं भी विधि-विधान नहीं है। साधक के लिए पापत्याग का व्रत ग्रहण करने के समान पुण्य-त्याग का व्रत ग्रहण करने का कहीं पर नाममात्र का भी उल्लेख या विधान नहीं है।
___ यथार्थता तो यह है कि त्याग धर्म की आत्मा है और पुण्य प्रवृत्ति धर्म की देह है। जैसे देह आत्मा को धारण करने वाला है, संसारी आत्मा देह के बिना नहीं रह सकती, देहान्त होना मृत्यु है वैसे ही पुण्य धर्म को धारण करने वाला है, सदेह अवस्था में दया, दान, करुणा, वात्सल्य, मैत्री आदि सद्प्रवृत्तियाँ रूप पुण्य के बिना धर्म या त्याग नहीं टिक सकता है, कारण कि देह के रहते हुये प्रवृत्ति होगी ही। अत: सद्प्रवृत्ति न होगी तो दुष्प्रवृत्ति होगी, जिससे साधक का पतन होगा। इसलिये पुण्य रहित होना पुण्यहीन होना है, पुण्यहीन धर्महीन ही होता है। धर्महीन होना सौभाग्यहीन होना है, दुर्भाग्य का आह्वान करना है।
ऊपर कह आये हैं कि त्याग-संवर-संयम धर्म की आत्मा है और पुण्य रूप सद्प्रवृत्तियाँ धर्म की देह हैं। दोनों धर्म के अंग हैं। दोनों में अंतर इतना ही है कि आत्मा अविनाशी होती है और देह विनाशी। इस प्रकार संवर और पुण्य सद्प्रवृत्तियों में इतना ही अंतर है कि त्याग रूप संवर साधना का अभिन्न अंग है जो अंत में मुक्ति-प्राप्ति के समय साध्य में परिणत हो जाता है। जबकि सद्प्रवृत्ति रूप पुण्य साधना का सहयोगी अंग है जो साध्य की प्राप्ति हो जाने पर नौका की तरह स्वत: छूट जाता है अथवा अग्नि की