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क्षयोपशमादि भाव, पुण्य और धर्म
अकसायं खु चरित्तं ।
चरणं हवइ स धम्मो ।
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-बृहत्कल्पभाष्य, 2712
जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा । जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा ।।
-मोक्षपाहुड 50
-बृहत्कल्प 1.35
भावार्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से मुक्ति की प्राप्ति होती है। सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता। अकषाय ही चारित्र है और चारित्र ही धर्म है तथा कषायों के उपशम के बिना आराधना नहीं होती है।
अभिप्राय यह है कि क्षयोपशम भाव से जो आत्मा के क्षमा आदि गुण प्रकट होते हैं अर्थात् आत्मा में जो निर्दोषता आती है वह आंशिक होती है और क्षायिक भाव से जो निर्दोषता आती है वह परिपूर्ण होती है।
आंशिक निर्दोषता व आंशिक गुण प्राणि - मात्र में है। जो आंशिक निर्दोषता में ही संतुष्ट हैं वे मुक्ति के पथ पर आगे नहीं बढ़ते हैं। मुक्ति के पथ पर वे ही आगे बढ़ते हैं जो आंशिक निर्दोषता से संतुष्ट न होकर दोषों को सर्वथा निर्मूलकर निर्दोष होना चाहते हैं। पूर्ण निर्दोषता ही वीतरागता है, मुक्ति है।