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अहिंसा, पुण्य और धर्म
धम्मो दयाविसुद्धो
दया युक्त धर्म विशुद्ध होता है।
जीवाणं रक्खणं धम्मो ।
जीवों की रक्षा करना धर्म है।
अहिंसादिलक्षणो धर्मः ।
धर्म अहिंसादि लक्षण वाला है।
सीलं मोक्खस्स सोवाणं ।
शील-सदाचार मोक्ष का सोपान है।
-तत्त्वार्थसूत्र 6.13, राजवार्तिक टीका
संतोसिणो नो पकरेंति पावं ।
संतोषी साधक पाप नहीं करते हैं।
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- बोधपाहुड, 25
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा 478
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे॥
-शीलपाहुड 20
-सूत्रकृतांग 1.12.15
क्रोध को शांति से, मान को मृदुता से - नम्रता से, माया को ऋजुता, सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिये।
-दशवैकालिक सूत्र 8.39
ऊपर जो धर्म की परिभाषाएँ दी गई हैं, उनमें आत्मा के स्वाभाविक गुण क्षमा, संतोष, सरलता, नम्रता, समभाव, अनुकंपा आदि को एवं इन गुणों के क्रियात्मक रूप दया, जीवों का रक्षण, शील, सदाचार आदि सद्प्रवृत्तियों को धर्म कहा गया है।