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पुण्य-पाप तत्त्व
पूर्वोक्त कर्म-सिद्धांत व तात्त्विक विवेचन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि चार घाती कर्मों की 47 पाप कर्म प्रकृतियों के बंध, उदय व सत्तावीतरागता, केवलज्ञान, केवलदर्शन और क्षायिक चारित्र में बाधक है। पुण्य कर्मों की कोई भी प्रकृति वीतरागता में, शुक्लध्यान में या मुक्ति-मार्ग में बाधक नहीं है। कुछ लोग यह मानते हैं कि पुण्य के आस्रव की हेतु दया, दान, करुणा आदि सद्प्रवृत्तियों का व शुभ योग तथा समिति-गुप्ति, संयम आदि का त्याग किये बिना वीतरागता, क्षायिक चारित्र, केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि संभव नहीं है। किंतु ऐसी मान्यता नितान्त निराधार है एवं कर्म सिद्धांत, तत्त्वज्ञान व आगम-विरुद्ध है और मानवता की भी घोर विरोधी है। वास्तविकता तो यह है कि दया, दान, करुणा, अनुकंपा, सेवा, सरलता, मृदुता आदि सद्प्रवृत्तियों व शुभयोग से तथा समिति गुप्ति, संयम आदि समस्त साधनाओं से पाप कर्मों के आस्रव का निरोध अर्थात् संवर होता है तथा पाप कर्मों का क्षय अर्थात् निर्जरा होती है। पाप कर्मों के संवर व निर्जरा से ही मुक्ति की उपलब्धि होती है। संक्षेप में कहें तो दोष या पाप से आत्मा-अशुद्ध-अपवित्र होती है। दोष या पाप प्राणी के करने से होता है, स्वतः नहीं होता है। अत: दोष के त्याग से, दोष न करने से आत्मा निर्दोष पवित्र होती है, जिससे पुण्य कर्मों का आस्रव व अनुबंध होता है। आशय यह है कि पुण्य कर्मों का आस्रव व अनुबंध निर्दोषता से, पाप के त्याग से स्वत: होता है, किया नहीं जाता है। अतः साधक पर पाप के त्याग का ही दायित्व है, पुण्य का नहीं। पुण्यास्रव व अनुबंध पाप के त्याग से होता है। अतः पुण्य कर्म में भी महत्त्व पाप के त्याग का ही है।