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पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से और पाप का उपार्जन कषाय की वृद्धि से --- 97 से पृथक्-पृथक् कर्म की पाप प्रकृतियों का क्षय और पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन बताया गया है, वह स्थिति बंध की अपेक्षा से नहीं है, किंतु अनुभाग बंध की न्यूनाधिकता की अपेक्षा से समझना चाहिये। उदाहरणार्थकाया की, भावों की, भाषा की सरलता और अविसंवाद से नाम की शुभ प्रकृतियों का उपार्जन होना बताया है। इसका अभिप्राय यह है कि इनसे सातों कर्मों की समस्त प्रकृतियों के स्थिति बंध का एवं पाप प्रकृतियों का क्षय व शुभ प्रकृतियों के अनुभाग में विशेष वृद्धि होती है। इसी प्रकार अन्य कषायों के क्षय से समझना चाहिये। इसके विपरीत किसी कषाय के उदय से सातों कर्मों के पाप कर्मों के स्थिति बंध में वृद्धि होती है, परंतु किसी कर्म विशेष की पाप प्रकृतियों के अनुभाग में विशेष वृद्धि होती है।
फलितार्थ यह है कि कषाय के क्षय से दो प्रकार के फल मिलते हैं यथा-1. पाप कर्मों का क्षय होता है 2. पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है अथवा यों कहें कि कषाय क्षय का आभ्यंतरिक फल है क्षमा, सरलता, मृदुता आदि धर्मों की उपलब्धि होना और बाह्य फल सातावेदनीय, उच्च गोत्र, शुभ नाम आदि पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन होना है।
इस प्रकार कषाय के क्षय व कमी से, आभ्यंतरिक फल के रूप में आध्यात्मिक विकास एवं बाह्य फल के रूप में भौतिक विकास होता है। भौतिक विकास पुण्य-प्रकृतियों के रूप में प्रकट होता है। इससे यह भी फलित होता है कि भौतिक विकास आध्यात्मिक विकास का घातक व विरोधी नहीं है, प्रत्युत आध्यात्मिक विकास का आनुषंगिक फल है और भौतिक विकास का सदुपयोग आध्यात्मिक विकास में सहायक व सहयोगी है। आशय यह है कि भौतिक विकास का सदुपयोग दया, अनुकंपा, करुणा से करने से भोग-वासनाओं का राग गलता है जिससे आध्यात्मिक विकास