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क्षयोपशमादि भाव, पुण्य और धर्म ------
------- 103 लक्ष्य से किया जाता है वह उसी का अंग होता है और उसी नाम से कहा जाता है। जैसे जिस महिला का लक्ष्य भोजन बनाना है, उस महिला की भोजन बनाने संबंधी जितनी क्रियाएँ हैं वे सब भोजन बनाने रूप कार्य की ही अंग हैं। भोजन के लिए स्टोव जलाना, कोयले फोड़ना, जल लाना, आटा गूंथना आदि कार्य करते हुए उसे पूछा जाय कि क्या कर रही हो? तो इन सबका एक ही उत्तर होगा-भोजन बना रही हूँ। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य मुक्ति-प्राप्ति रूप धर्म होने से उसकी तद्विषयक प्रत्येक क्रिया धर्म कही जाती है तथा मिथ्यादृष्टि का लक्ष्य विषय-सुख का भोग होने से उसका प्रत्येक कार्य उसी का अंग कहलाता है। यह भेद लक्ष्य की दृष्टि से है अन्यथा तो मिथ्यादृष्टि का क्षयोपशम व विशुद्धि भाव भी कर्मक्षय का ही हेतु है, बंध का नहीं। यही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में भी हेतु है, जैसा कि कहा है
खयउवसमिया विसोही देसणापाउग्गा करणलद्धी य। चत्तारि वि सामण्णा करण पुण होइ सम्मत्ते।।
-धवला पुस्तक 6, पृष्ठ 204 व गोम्मटसार जीव कांड गाथा 651 अर्थात् सम्यक्त्व-प्राप्ति में क्षायोपशमिक, विशुद्धि (पुण्य), देशना, प्रायोग्य और करण, ये पाँच लब्धियाँ होती हैं। इनमें से चार सामान्य हैं, जो करणलब्धि में सहायक होती हैं। इस दृष्टि से मिथ्यादृष्टि के क्षायोपशमिक व विशुद्धि (पुण्य) भाव भी धर्म ही हैं। धर्म का यह भेद लक्षण की दृष्टि से है। सामान्य धर्म से पृथक् करने वाले विशेष असाधारण धर्म को लक्षण कहा जाता है। धर्म के इस लाक्षणिक भेद को समझने के लिए औदयिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक व औपशमिक भाव को दृष्टिगत करना होगा।
कर्मों के उदयजन्य भाव को औदयिक भाव कहा जाता है। उदय